सुरेशजी आपने निशा के अभियान के चपेटे में तहलका को भी ले लिया है. इसलिए तहलका का एक पत्रकार होने के नाते आपकी कुछ बातों का जवाब देना बहुत जरूरी हो जाता है.
आपने तहलका का जिक्र किया है और लगे हाथ उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए हैं. सिर्फ इस आधार पर कि निशा ने तहलका का पता दिया है. निशा तहलका की पत्रकार हैं और एक पता देने की जरूरत ने ऐसा करवाया. इसके अतिरिक्त तहलका का इस अभियान से किसी तरह का वास्ता नहीं है. और जिस तहलका की विश्वसनीयता को आप संदेहास्पद मानते हैं उसे आप जैसे किसी व्यक्ति के प्रमाण की दरकार नहीं हैं. आज तक तहलका ने जो किया है उसकी सत्यता पर किसी तरह की उंगली नहीं उठी है, देश के सर्वोच्च न्यायालय ने तहलका को प्रमाण दिया है. देश के करोड़ो लोग तहलका पर विश्वास करते हैं. लिहाजा अपना संदेह अपने पास रखें.
– रही बात एक एक मामले में निशा की हिस्सेदारी की तो आपको पता होना चाहिए कि देश में लाखों की संख्या में पत्रकार हैं और संभव नहीं कि हर विवाद में हर पत्रकार शिरकत करे ही करे. और तहलका को आपने खींचा है तो आपको पता होना चाहिए कि अकेले तहलका ने स्कारलेट बलात्कार-हत्याकांड को अपनी कवर स्टोरी बनाया है (29 मार्च 2008 अंक, गोइंग गोइंग गोवा)
– आपने पूछा है कि पिंक चड्डी भेजने से महिलाओं को नैतिक बल मिलेगा. अगर अबला, असहाय स्त्री को सरेआम पीटने से संस्कृति की रक्षा होती है तो पिंक चड्डी भेजने से नैतिक बल क्यों नहीं मिल सकता?
– दिल्ली की पत्रकार के बलात्कार की कितनी जानकारी निशा को है इसकी जानकारी तो आपको उनसे बात करके ही पता चलेगी. हो सकता है उनकी जानकारी आपको बगले झांकने पर मजबूर कर दे.
– तस्लीमा नसरीन के जरिए तहलका को घेरने की कोशिश भी की है आपने. आपकी जानकारी पर तरस आता है अकेले तहलका ऐसा संस्थान है जिसने दो-दो कवर स्टोरी तस्लीमा को देश से निकाले जाने के बाद की थी. इसके अलावा छोटी-मोटी खबरों की गिनती नहीं है. मुसलमानों को गरियाने वाली तस्लीमा की फिक्र है आपको पर एमएफ हुसैन की परवाह नहीं. ये दोगलापन क्यों?
आखिरी एक लाइन में श्रीराम सेना से अपना गला छुड़ा कर पोलिटिकली करेक्ट होना भी दोगलेपन की निशानी है. हिंदी में कहावत है गुण खाओ और गुलगुले से परहेज. इस भड़ास की वजह सिर्फ ये है कि आपने बिना जाच-पड़ताल किए जबरिया एक व्यक्तिगत अभियान में तहलका को घसीट लिया हैं. कोई और शंका हो तो संपर्क कर सकते हैं.
दो बातें और साफ कर दूं. शायद निशा के अभियान को आप ठीक से समझ नहीं सके हैं. उसने पहले ही साफ कर दिया था कि वैलेंटाइन डे से उसका कोई लेना-देना नहीं है, न ही वो उसकी समर्थक या बैरी है. उसका विरोध सिर्फ श्रीराम सेना के तरीके, उनकी स्वयंभू ठेकेदारी, दूसरों की व्यक्तिगत आजादी का फैसला कोई तीसरा करे जैसे कुछ बेहद मूल मसलों से है.
एक बेहद मौजू सवाल है कभी शांति से दो मिनट मिले तो विचार कीजिएगा. यदि अपकी पुत्री, पत्नी या बहन भरे बाजार इन मतिहीनों का शिकार हो जाने के बाद भी आपकी प्रतिक्रिया क्या यही रहेगी? किसी को भी किसी महिला से ज्यादती करने का अधिकार सिर्फ संस्कृति रक्षा के आडंबर तले दिया जा सकता है क्या? उत्तर शायद नकारात्मक आए.
अतुल चौरसिया
बहुत सही लिखा है;
मैं चड्डी सप्पलायर हूं, एसे काम के लिये पुरानी चड्डियां सही नहीं रहती आपको नई नकोर चड्डी सस्ते दाम पर चाहिये तो मेरे पास से ले सकते हैं सदर बाजार में फायर ब्रिगेड स्टेशन के पास मेरी दुकान है
तहलका का अभियान चलता रहे, झूलेलाल की मेहर की छतरी आपके सर पर हमेशा सलामत रहे
बहुत खूब, इसका विस्तार से उत्तर देने की कोशिश अवश्य करूंगा, फ़िलहाल तात्कालिक तौर पर इतना कहना चाहता हूँ कि मैंने खुद तहलका की इसमें संलिप्तता को संदेहास्पद माना है, और आपने भी अपनी पत्रकार बिरादरी का बखूबी सभी दूर से बचाव किया है और निशा से शायद आप हर बात पर सहमत होंगे…उनकी कोई बात आपको गलत नहीं लगती सिर्फ़ हम ही गलत हैं? यह स्पष्ट नहीं हो रहा कि आप सिर्फ़ तहलका को लेकर इतना भड़के हैं, या इस पूरे मामले पर…
चलिए आप से कुछ तो सी तथ्य पता लगे। पर चड़्डी भेजने का विचार ही अपने आप में भदेस नहीं है?
और मॉडरेशन लगाकर आपने भी साबित किया है कि आप भी तानाशाही मानसिकता वाले हैं…
Mai aapki baatose sahamat hu. Sree Ram sene ki tarike hamko bhi ache nahi lage. Pub Aana Jaana and Valantime Day Manana ye sab unaka niji Mamala hai. Par Streeyo se Is Tarah se bartav karna kaha ka sanskriti hai ye Hamari Bharat Desh Ki to hargeej nahi hai.
बड़ी अजीब सी बात है चड्डी भेजने की… अगर समझाना ही था तो शराब की खाली बोतलें भेजना बेहतर रहता, चड्डी का क्या मैसेज है?
वैसे आपके फ्लिकर साइड बार में जो तस्वीरें दिख रहीं है, उसमें महिलायें निर्वस्त्र ही हैं
शायद इन्हीं से प्रेरणा लेकर इस तरह के कार्य होते हैं
सही है
आपके चड्डी प्रेम के बारे में सुनकर आपको आगे जानने कि इच्छा नहीं है
वैसे आपके ब्लोग पर चिपकी फ़ोटो देख कर लगता है कि आप महिलाओ को बिना चड्ढी बनियान के ही देखाना दिखाना पसंद करते है सो आप और आपकी सहकर्मी की बात सौ फ़ीसदी सही चड्ढी के साथ बनियान भी उतार कर/ उतरवा कर उन्हे भेजिये जी जो आपकी इस नंगे पन की आजादी के रास्ते मे आते हो
वैसे उम्मीद है कि आप लोग अपने घर और आफ़िस मे तो शायद आदम हव्वा के रूप मे ही रहते होंगे . मुबारक हो जी 🙂 वैसे आपको नही लगता कि आपका तहलका सिर्फ़ काग्रेस के पैसे से चलकर उन्हे राजनितिक फ़ायदा पहुचाने के हथियार के अलावा कुछ नही है . सच सुनकर आपको अब और मिर्ची लगी होगी . अब लगी तो हम क्या करे 🙂
धर्म और संस्कृति के नाम पर महिलाओं का अनादर करने वाले लोगों को धर्म और संस्कृति से कुछ लेना देना नहीं है। अगर कोई महिला विरोध में कुछ ऐसा कर रही है जो पुरुषों को अपनी मान-मर्यादा के विपरीत लग रहा है या उन्हें ऐसा लग रहा है कि आहत औरत ने अपनी अस्मिता के प्रतीक को ही विरोध स्वरूप उसके मुंह पर देकर मारा है जो उन्हें थप्पड़ से भी ज्यादा लग रहा है तो उन्हें ये भी सोचना चाहिए कि औरत को विद्रोह के इस मुकाम पर पंहुचाने का जिम्मेदार कौन है। मैं एक बात साफ कर दूं कि न तो मैं पब में जाने की पक्षधर हूं और न किसी ऐसे आंदोलन का हिस्सा बनने की लेकिन मेरा मानना है कि बहस समग्र पहलुओं पर होनी चाहिए।
श्रीराम सेना जो कुछ भी कर रही है या फिर जो तरीके अपना रही है वह गलत हैं. परन्तु प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन निजी मामला नहीं है. यदि एक जोड़े में आपसी प्रेम है तो यह उनके अपने शयनकक्ष तक सीमित रहना चाहिए. सडकों पर उसका प्रदर्शन न सिर्फ उसकी गंभीरता कम करता है वरन समाज के अन्य लोगो को आहत भी करता है साथ ही बच्चों में गलत संस्कारों के बीज भी डालता है. आज जो लोग मुतालिक को चड्ढी भेज रहे हैं उन्हें इस विषय को मानवीय स्वतंत्रता से जोड़ने के साथ साथ सांस्कृतिक अतिक्रमण से भी जोड़कर देखना चाहिए. वैलेंटाइन डे के समकक्ष ही हिन्दू धर्मं में “मदनोत्सव” मनाने की परंपरा रही है. ग्लैमर और प्रचार के आभाव में इसका अंत हो गया. वैलेंटाइन डे सहित तमाम डे (फादर्स डे, मदर्स डे, रोज डे आदि) केवल अपने उत्पाद बेचने का हथकंडा मात्र है और इसका भावनाओं के प्रदर्शन से कोई लेना देना नहीं रह गया है. भावनाओं के प्रदर्शन हेतु एक दिन की बंदिश क्यों?? यदि आपको अपने साथी, माता, पिता, भाई या बहिन से प्यार है तो यह एक दिन का मोहताज क्यों ? यह सब तो आपके पल- पल के व्यव्हार से ही प्रकट हो जाता है. जहाँ तक रही त्योहारों की बात तो अक्षय तृतीय सैकडों वर्षों से मनाने की परंपरा रही है परन्तु दो साल पहले सोने के गिरते भावों में उछाल पैदा करने के लिए सोने के आभूषण तथा सिक्के बेचने वाली कंपनियों ने इसका प्रचार शुरू कर दिया . कहने का अर्थ यह है की बाज़ार उसी को उठाता है जो बिकता है. वैलेंटाइन डे भी इसी की एक कड़ी है. परन्तु बाज़ार को समाज और संस्कृति के साथ मजाक करने की खुली छूट नहीं दी जा सकती.
भारत में स्वतंत्रता के अधिकार का किस प्रकार दुरूपयोग हर खास ओ आम द्वारा किया जाता है वह किसी से छुपा नहीं है. किसी भी समूह का आधार होता है -अनुशासन . समाज के अनुशासन को संस्कृति का नाम दिया जाता है. अनुशासन के बिना किसी भी समूह का गुजारा नहीं हो सकता. जरा सोच कर देखिये कि अगर सेना में अनुशासन ना हो तो उसका कार्य किस प्रकार चल पायेगा. समाज में उतना कठोर ना सही परन्तु अनुशासन तो आवश्यक है ही. हमारी संस्कृति में भावनाओं के उच्श्रंखल प्रदर्शन का प्रचलन नहीं है और मर्यादा की सीमा निश्चित है. पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित लोगों को भी चाहिए कि वे समाज के अन्य लोगों कि भावनाओं का ख्याल रखे और इसे अपने निजी जीवन तक ही सीमित रखें. वर्ना सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि मंगलोर में शराबियों पर जो प्रहार किया गया वह कहीं हमारी संस्कृति पर हो रहे प्रहार का ही प्रतिरोध तो ही तो नहीं था.
पिंगबैक: Hindi Blogosphere’s Reactions to the Pink Chaddi Campaign Show the Divide Between Bharat and India | Gauravonomics Blog