एक पिता अपनी बेटी को पत्र लिख कर किस तरह से इमोशनली ब्लैकमेल कर सकता है, किस हद तक कर सकता है, इमोशनल ब्लैकमेल के साथ धमकी के इशारे दे सकता है और इशारों के साथ पाखंड का जखीरा पेश कर सकता है इस सबका नमूना है धर्मेंद्र पाठक द्वारा अपनी बेटी (शायद उन्हें इसका अधिकार नहीं) को लिखा पत्र. पाठक बार-बार धर्म के प्रतिकूल आचरण पर विनाश की चेतावनी देते हैं और जाने अनजाने ही वे अपनी उस जातिगत कुलीन मानसिकता का परिचय भी देते जाते हैं जिसे उन्होंने इक्कीसवीं सदी में भी सनातन धर्म, परंपरा, शुचिता, आचरण के दोमुंहे खाल में छिपा कर जिंदा रखा है.
खुद के पांव किस हद तक पांखंड के दलदल में बिंधे-गुथे हैं इसकी बानगी उनके पत्र के एक एक वाक्य से टपकती है. अपनी बेटी को नीचे कुल के वर के साथ न ब्याहने का उनका एकमात्र तर्क है सनातन परंपरा जिसमें इस रिश्ते की अनुमति नहीं है. पर उनकी मानसिकता से उन तालिबानी कट्टरपंथी जेहादियों की स्पष्ट बू आती है जो कुरान के ढाई हजार साल पुराने स्वरूप में किसी तरह की व्याख्या को सिरे से नकारते हैं, उनके शास्त्र में पूर्व की किसी गलत परंपरा को सुधारने की कोई गुंजाइश नहीं है बल्कि गलत परंपरा के नाम पर इंसानियत का बार-बार गला घोंटने की खुली छूट है. बस उनमें और तालिबानियों में अंतर इतना है कि इन्होंने शिक्षित और आधुनिकता की भेंड खाल ओढ़ रखी है जिसके अंदर भेंड़िये की आत्मा बार-बार कसमसाती है और जब-तब निरुपमा जैसियों की खून से अपनी प्यास बुझा लेती है.
पाखंड का सिरा पाठक परिवार के एक सिरे से शुरू होकर अंत तक चला जाता है. खुद एक बैंक के प्रबंधक पद पर तैनात पाठक जितनी आसानी से अपनी बेटी को लिखे पत्र में भारतीय संविधान के महज साठ साल का होने की बात कह हवा में उड़ा देते हैं उसी व्यवस्था की मलाईदार सुविधा उठाने में उनकी आत्मा कतई नहीं झिझकती. पाठक जिस सनातन परंपरा की दुहाई अपनी बेटी के वर के संबंध में देते हैं खुद उसी परंपरा के हिसाब से जीवन व्यतीत करने का उनका जी नहीं होता. भगवान जाने कितने कर्म-कुकर्म अपने बैंक प्रबंधकीय जीवन में उन्होंने खुद किए होंगे तब उनकी आत्मा कतई सनातन धर्म की बाट नहीं जोहती. पाठक यहीं आकर नहीं रुकते. अपने दोनों बेटों को उन्होंने उसी व्यवस्था के तहत इन्कम टैक्स विभाग और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का रिश्तेदार बनाने में उनकी सनातन परंपरा आड़े नहीं आती जिसके साठ साल का होने की खिल्ली वो एक झटके में उड़ा देते हैं.
उनका पाखंड पत्र के अगले हिस्सों में भी जारी रहता है. बेटी को वो समझाते हैं (धमकी देते हैं) कि मां-बेप बेटी को इसलिए पढ़ाते लिखाते हैं ताकि वो उनका यशवर्धन कर सके. साफ है कि ये बाप अपने यश और कीर्ति की लालसा में किसी हद तक जा सकता था. क्योंकि इसकी अगली ही पंक्ति में वो कहते हैं इसके विरुद्ध किया गया कोई भी आचरण तुम्हारा विनाश कर देगा. क्या निरुपमा के विनाश का ये पूर्व संकेत था जिसे वो समझ नहीं सकी थी. या मां-बाप और परिवार को मना लेने का आतिशय आत्मविश्वास जिसे परिवार के झूठे, पाखंडी अहम ने तार-तार कर दिया. कुल मिलाकर ये एक पाखंडी परिवार का कृत्य जान पड़ता है जिसकी एक एक कारगुजारी से कपट और पाखंड टपकता है लेकिन ये अपने ऊपर समाज के सबसे कुलीन और सभ्य होने का लबादा ओढ़ कर चलते हैं.
अतुल चौरसिया