Category Archives: Uncategorized

एक नदी का मर्सिया

देहरादून से सटे विकासनगर पहुंचते-पहुंचते सूरज ठीक सर पर आ चुका था, धूप का प्रसाद भरपूर मिल रहा था. हर चीज तप रही थी, पर सबके विपरीत हवा बहुत ठंडी बह रही थी. इस जगह को डाक पत्थर भी कहते हैं. यहीं पर पहाड़ों का सुरक्षित आवरण छोड़कर यमुना मैदानों के खुले विस्तार में आ जाती है. यहां उसका वैभव, उसके संसाधन पहली बार बाहरी दुनिया की नजर में आते हैं. नतीजा, हर कोई उसे निचोड़ लेना चाहता है, जिससे जैसे बन पड़े. यहां एक सवाल का जवाब जान लेना जरूरी है. आखिर गंगा की तर्ज पर यमुना के पर्वतीय इलाकों में बांध परियोजनाओं की धूम क्यों नहीं है? जवाब डाक पत्थर में गढ़वाल मंडल विकास निगम के रेस्ट हाउस में तैनात प्रबंधक एसपीएस रावत देते हैं जो खुद भी वाटर राफ्टिंग एसोसिएशन से जुड़े रहे हैं, ‘पहाड़ों पर यमुना में गंगा के मुकाबले एक चौथाई पानी होता है. इसके अलावा यमुना जिस क्षेत्र से बहती है उसका इलाका चट्टानी नहीं होकर कच्ची मिट्टी वाला है जिस पर बांध नहीं बनाए जा सकते.’ शिवालिक पहाड़ियों में पतली धार वाली घूमती इतराती यमुना डाक पत्थर में अचानक ही लबालब पानी से भरा विशाल कटोरा बन जाती है. इसकी वजह है टौंस. इसी जगह पर यमुना से दस गुना ज्यादा पानी अपने में समेट टौंस अपना अस्तित्व यमुना में खो देती है लेकिन उससे ठीक पहले हिमाचल प्रदेश के हिस्से में स्थित कोंधारी विद्युत स्टेशन टौंस से सारी बिजली निकाल कर सिर्फ बचा हुआ पानी यमुना के लिए छोड़ देता है.  

किसी राजनेता की यह कथित टिप्पणी आज भी बड़े चाव से सुनी-सुनाई जाती है – ‘पानी से बिजली निकाल लेंगे तो पानी में क्या बचेगा.’ नेताजी की यह बात तब से लेकर आज तक उनकी अज्ञानता और हमारे मनोरंजन का विषय रही है. पर अज्ञानता में कही गई उस बात में आज कुछ तो सच्चाई जरूर है. पानी से बिजली निकाल लेने पर पानी का सब कुछ नहीं लेकिन बहुत कुछ खत्म हो जाता है. सर्दियों में पहाड़ की शीतल धाराओं से निकल कर जो मछलियां नीचे मैंदानों की तरफ आ जाती थीं वे गर्मियों में प्रजनन के लिए एक बार फिर से धारा की उल्टी दिशा में प्रवास करती थीं. कोई नहीं जानता वो कतला, रोहू, ट्राउट मछलियां अब कहां हैं. बड़ी-बड़ी पीठ वाले वे कछुए जिन्हें पौराणिक कथाओं में यमुना की सवारी माना गया है, वे अब क्यों नहीं दिखते. क्योंकि बांधों को कूद कर वापस ऊपर की तरफ जाने की कला उन्हें नहीं आती थी. खैर मछलियों और नदियों के आंसू किसने देखे हैं. उन पांच सौ से ज्यादा मछुआरे गांवों के बारे में भी किसी सरकारी दफ्तर में कोई रिकॉर्ड नहीं है जो सत्तर के दशक तक इसी यमुना के पानी पर मछली पालन का काम करते थे. वे जल पक्षी भी अब नहीं दिखते जो पुराने लोगों की पुरानी यादगारों में नदी के मुहानों पर जलीय जीवों का शिकार करते थे. डाक पत्थर से निकलने वाली यमुना नहर में बंशी लगाए बैठे 27 वर्षीय जितेंदर कहते हैं, ‘यहां कोई मछली नहीं मिलती. अपने खाने को मिल जाय वहीं बहुत है.’

डाक पत्थर वो जगह है जहां यमुना पर आदमी का पहला बड़ा हस्तक्षेप हुआ है. इस बराज से एक नहर निकलती है और करीब बीस किलोमीटर आगे जाकर पांवटा साहिब में यमुना की मुख्य धारा में फिर से मिल जाती है. डाक पत्थर से आगे यमुना की मुख्य धारा में एक बूंद भी पानी नहीं जाता. बीस किलोमीटर लंबी यह पट्टी जल विहीन है क्योंकि सारा पानी नहर में छोड़ा जाता है. नहर वाली इस यमुना का गला पानी से बिजली निकालने के लिए घोटा जाता है. सवाल फिर वही कि नदी की मुख्य धारा में पायी जाने वाली उन जलीय वनस्पतियों का क्या हुआ होगा, उन शैवालों की क्या गति हुई होगी जिनके कारण यमुना अपनी सहोदर गंगा से बिल्कुल उलट गाढ़ा हरा रंग ओढ़े रहती थी.
डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक जाने वाली नहर पर बीच में थोड़ी-थोड़े अंतराल पर तीन जल विद्युत संयत्र बन हुए हैं- ढकरानी, धालीपुर और कुल्हाल. इसके आगे आसन नदी आकर इस नहर में मिलती है जहां आसन बांध बना है. यहां से नहर एक बार फिर हिमाचल प्रदेश के पांवटा साहिब तक छोटी सी यात्रा करके यमुना की मुख्य धारा को नया जीवन देती है. पांवटा साहिब सिक्खों का पवित्र धार्मिक स्थल है. यहां श्रद्धालु स्नान ध्यान करके पांवटा साहिब के दर्शन करते हैं. पांवटा साहिब की कथा है कि गुरु गोविंद सिंह और बंदा बहादुर जब यहां से गुजर रहे थे तब उनका घोड़ा यहां रुक गया था. गुरुजी ने यहां कुछ दिन रुकने का फैसला किया. आगे बढ़ते समय उन्होंने अपने कई हथियार यहीं छोड़ दिए थे जिनके दर्शन के लिए श्रद्धालु यहां आते हैं. डाक पत्थर से पांवटा साहिब तक एक ओर हिमाचल प्रदेश दूसरे सिरे पर उत्तराखंड है. यह नदी दोनों राज्यों की सीमा तय करती चलती है.

यह तो यमुना नहर की बात हुई. नदी की मुख्य धारा में क्या होता, जवाब है अवैध खनन. हर गड़बड़ी के लिए सरकार को गरियाने और मौका मिलते ही हर नियम कानून धज्जी उड़ाने वाली हिंदुस्तानी प्रवृत्ति इस बीस किलोमीटर के दायरे में चरम पर दिखती है. सुप्रीम कोर्ट ने सालो पहले नदी में किसी भी तरह के खनन पर प्रतिबंध लगा रखा है. लेकिन नदी के बेसिन में खुदाई करते मजदूर और ट्रकों-ट्रैक्टरों का निर्बाध आवागमन देखना यहां कतई मेहनत का काम नहीं है. इसका असर नदी की पारिस्थितिकी पर पड़ता है. नदी की धारा बदल सकती है, दुर्घटनाएं तो आम बात हैं. महत्वपूर्ण तथ्य है कि जिस गति से नदी की तली में खनन हो रहा है उस गति से नदी अपनी तली को रीफिल नहीं कर सकती. पांवटा साहिब हिमाचल का बड़ा औद्योगिक नगर भी है. यहां सिमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया है, टेक्सटाइल्स उद्योग है, केमिकल फैक्ट्रियां हैं और दवा के कारखाने भी हैं. इन सबकी थोड़ी-थोड़ी निर्भरता यमुना पर है और सबका थोड़ा-थोड़ा योगदान यमुना के प्रदूषण में है. हालांकि यह गंदगी उतनी है जितनी नदी खुद साफ कर सकती है.

नदी आगे बढ़ती है इसके साथ ही हम भी आगे बढ़ते हैं. लगभग पच्चीस किलोमीटर आगे कलेसर राष्ट्रीय प्राणि उद्यान के शांत और सुरम्य वातावरण से गुजरते हुए अचानक ही सामने एक विशाल बांध आकर खड़ा हो जाता है. यह ताजेवाला है. यहीं पर हथिनीकुंड बांध बना है. यह यमुना की कब्र है. यहां से आगे एक बूंद पानी यमुना में नहीं जाता. यहां यमुना को बांध दिया गया है. सिवाय बरसात के तीन महीनों के, जब नदी की धारा पर किसी का काबू नहीं रहता और नदी हमें अपनी तुच्छता का अहसास कराती है. उस वक्त यमुना के बंधन खोलने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता. विकास की जो परिभाषा पिछले डेढ़-दो सौ सालों में गढ़ी गई है उसका नतीजा है हथिनीकुंड बांध. इस विकास के बदले में नदियों का विनाश, ताल तलैए, पोखरे, जंगल, जमीन और पृथ्वी का विनाश बहुत छोटी कीमत है.
 
यहां से यमुना का सारा पानी दो बड़ी नहरों में बांट लिया जाता है. इस तरह नदी की मुख्य धारा एक बार फिर से सूख जाती है. पश्चिमी यमुना नहर और पूर्वी यमुना नहर. पश्चिमी यमुना नहर हरियणा के आधे हिस्से की खेती बाड़ी और प्यास बुझाने में होम हो जाती है, पूर्वी यमुना नहर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से का गला तर करने में खेत रहती है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ अधिकारी डीडी बसु स्वीकार करते हैं, ‘हथिनीकुंड में यमुना की मृत्यु हो जाती है. अगर एक भी फीसदी नेचुरल फ्लो यमुना में नहीं होगा तो केवल सीवर के पानी के सहारे यमुना नहीं जिंदा रहेगी. आप लाख ट्रीटमेंट प्लांट लगा लें.’     

हथिनीकुंड में यमुना की मौत का नजारा देखने के बाद यमुनानगर आता है. यमुना के तट पर बसा पहला बड़ा शहर. यहां शहर हमें चकित करता है. यमुना में ठीक ठाक पानी मौजूद है. जब हथिनीकुंड से पानी आगे बढ़ता ही नहीं तो यहां पानी पहुंचा कैसे. इसका जवाब नदी के किनारे-किनारे उस सीमा तक यात्रा करने पर मिलता है जहां से यमुना यमुनानगर में घुसती है. दसियों छोटे-बड़े नाले मुख्य धारा में अपना मुंह खोले हुए मिलते हैं. एक बड़ा विचित्र खेल भी देखने को मिला यहां और बाद में लगभग हर बड़े शहर में हमें यह विचित्रता दिखी. जहां दस एमएलडी क्षमता वाला सीवर ट्रीटमेंट प्लांट लगा हुआ था उसके ठीक बगल से दो बड़े नाले बिना किसी ट्रीटमेंट के नदी में घुल रहे थे. यहीं पर यमुनानगर का श्मशान घाट भी है. हिमालय के फुटहिल्स से निकलने वाली एक दो छोटी मोटी धाराएं भी ऊपर की तरफ यमुना में मिलती है और इसे जीवन देती है. नदी किनारे दसियों लोग मछली मारते हुए दिखे. पर डाक पत्थर के उलट यहां के मछली मारने वालों का उद्देश्य अलग है. वे जानते हैं ये मछलियां खाने के लायक नहीं हैं. वे इन्हें पकड़ते हैं और पास में ही रेहड़ी लगा कर बेच देते हैं. यहां नदी किनारे घूमते वक्त एक भी ऐसा स्थान नहीं मिला जहां नाक से रुमाल हटायी जा सके. वे लोग कहां है जो यमुना में हर तीज त्यौहार पर पाप धुलने चले आते थे और जाते जाते फिर से पाप करने का सर्टिफिकेट भी ले जाते थे? इस तरह यमुनानगर में आबाद यमुना का राज डीकोड कर लेने के बाद आगे बढ़ना जरूरी था.

यहां से आगे दो और शहर हैं हरियाणा के- सोनीपत और पानीपत. हालांकि ये ठीक नदी किनारे नहीं है. इसलिए इनकी गंदगी का कुछ हिस्सा ही यमुना को ढोना पड़ता है. कुछ मौसमी धाराओं और भूगर्भीय जलस्रोतों से खुद को जिंदा रखते हुए यमुना आगे दिल्ली की तरफ बढ़ती है, क्योंकि नदी का काम है बढ़ना. रोकने वाले कुछ दिन तक रोक सकते हैं, सीना फुला सकते हैं अपने पुरुषार्थ पर, लेकिन हमेशा के लिए नहीं. नदी को रोकना खुद नदी के वश में भी नहीं है. वरिष्ठ पर्यावरणविद अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘यह धारा है जो अपना रास्ता भूली हुई है. वह अपने रस्ते वापस जरूर लौटेगी और तब सब कुछ बहुत विनाशकारी होगा. पचास लाख साल से ज्यादा समय से नदी बह रही है. दो लाख साल का आदम इतिहास है और विकास का इतिहास उससे भी छोटा, महज दो सौ सालों का. जब यहां कुछ नहीं था तब भी नदी बह रही थी. जलीय वनस्पतियों और जीवों के रूप में पहला जीवन ही इन्हीं नदियों में पनपा. कहने का अर्थ है कि हम नदी से हैं, नदी हमसे नहीं है. आज हर तरफ यमुना बचाओं की बातें सुनने को मिलती हैं. हमें समझना होगा कि हम यमुना को नहीं बचा सकते, हमारी हैसियत ही नहीं है. हम सिर्फ खुद को बचा सकते हैं. नदी के साथ जो हो रहा है उसे रोककर, उसके हाथ खुले छोड़ कर, उसे बंधन मुक्त करके. वरना नदी जिस दिन चाहेगी कोई बंधन उसे रोक नहीं पाएगा.’    

करीब 200 किलोमीटर पहाड़ों में और इससे थोड़ा सा ज्यादा मैदानों में घूमते-घामते यमुना पल्ला गांव पहुंचती है. दिल्ली की उत्तरी सीमा पर बसे इस गांव से यमुना की दिल्ली यात्रा शुरु होती है. 22 कदम (किलोमीटर पढ़े) की इस पट्टी में 22 तरह की मौतें है. एक मरी हुई नदी को बार-बार मारने का मानवीय सिलसिला यहां चलता है. पहला काम होता है वजीराबाद संयंत्र के पास बचा हुआ सारा पानी निकालने का. दो करोड़ लोगों के भार से दबे जा रहे यमुना बेसिन के इस शहर का एक हिस्सा अपनी प्यास इसी पानी से बुझाता है. इस पानी को निकालने के बाद इसकी पूर्ति करना भी तो जरूरी है सो दिल्ली वालों ने नजफगढ़ नाले का मुंह यहीं पर खोल दिया है. अपने आठ सहायक नालों के साथ तैयार हुआ यह नाला शहर के प्रारंभ पर ही नदी का गला घोंट देता है. अब यहां से यही कचरा लेकर नदी आगे बढ़ती है और बीच बीच में कई दूसरे कचरे अपने भीतर समेटती चलती है. बदरपुर के पास शहर छोड़ने से ठीक पहले एक और बड़ा नाला जिसे शाहदरा ड्रेन के नाम से जाना जाता है इसमें आकर मिल जाता है. इस तरह शहर अपनी गंदगी से मुक्ति पाकर कभी ये सोचने की जहमत ही नहीं उठाता कि जो कचरा उन्होंने छोड़ा, वह गया कहां. और अगर वह फिलहाल चला भी गया तो क्या हमेशा के लिए चला गया?
शहर भर के लोगों का गू-मूत लेकर यमुना आगे बढ़ती है तो उसका सबूत क्या है. इसका सीधा सबूत है पानी में मौजूद कोलीफॉर्म बैक्टीरिया जो पानी में सिर्फ मानव मल के ऊपर ही पोषित होते हैं. कोलीफॉर्म से प्रदूषित पानी हैजा, टायफाइड और किडनी खराबी जैसी बीमारियां फैलाता है. सीपीसीबी की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक पल्ला में जहां नदी शहर में प्रवेश करती है वहां कोलीफॉर्म का स्तर सामान्य से 30 से लेकर 1000 गुना तक ज्यादा है. और शहर पार करने के बाद ओखला बांध के पास इसकी मात्रा सामान्य से दस हजार गुना तक ज्यादा पायी गई है. कहने का मतलब है कि इसका पानी किसी भी तरह के काम में नहीं लाया जा सकता, जानवरों को नहलाने के काम में भी नहीं.
हालांकि शहर के नालों को सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के जरिए साफ करने की कई योजनाएं हैं. हम इन्हें यमुना एक्शन प्लान के नाम से जानते हैं. 1993 से हम इसके बारे में सुनते आ रहे हैं और आज भी यह उतनी ही सफल-असफल है जितनी दो दशक पहले थी. तब भी यमुना मैली थी आज भी यमुना मैली है. हां ! सफाई के नाम पर इन दो दशकों में दो हजार करोड़ रुपए जरूर साफ हो चुके हैं. फिलहाल यमुना एक्शन प्लान का तीसरा चरण शुरू हो चुका है. हर योजना अपने समय पर पूरा होने में असफल रही है. हर योजना के बजट में बाद में दिल खोलकर बढ़ोत्तरी भी की गई है. पर हासिल के नाम पर कुछ नहीं है. एक जिम्मेदार अधिकारी इस संबंध में पूछने पर पहले तो कुछ बोलने से मना करते हैं, जल्द ही अपने होने वाले रिटायरमेंट की दुहाई देते हैं और फिर ऐसी बात बताते हैं जिससे शायद ही दुनिया को कोई फर्क पड़े. वे कहते हैं, ‘देखिए इस तरह की योजनाओं के पूरा होने का समय और उस पर आने वाली लागत अनुमानित होती है. इसका बढ़ना कोई बड़ी बात नहीं है.’ यह कहकर वे चले जाते हैं, हम बैठकर सोचते रहते हैं. आखिर इस देश में ऐसी भी कोई योजना है जिसने अनुमानित अवधि से पहले अपना काम निपटा दिया हो और आवंटित बजट से कम में काम कर दिखाया हो. हर बार यह अनुमान बढ़ता ही क्यों है? आपको पता हो तो हमें भी बताइएगा. हाल ही में देश के 71 शहरों द्वारा पैदा किए जा रहे मल-मूत्र पर आई सीएसई की एक रिपोर्ट (एक्क्रीटा मैटर्स) में दिल्ली द्वारा पैदा की जा रही गंदगी पर विस्तार से रोशनी डाली गई है. सीएसई के प्रोग्राम डाइरेक्टर फॉर वाटर नित्या जैकब एक्क्रीटा मैटर्स के हवाले से बताते हैं, ‘यह शहर हर दिन 4455.6 मिलियन लीटर सीवर हर दिन पैदा कर रहा है और सिर्फ 1478 मिलियन लीटर का ट्रीटमेंट हो रहा है. हालांकि एक्शन प्लान वालों का दावा है कि उनके पास 2330 मिलियन लीटर सीवेज ट्रीट करने की क्षमता है.’

यहां यमुना के खादर में खेती भी खूब होती है. खीरा, लौकी, ककड़ी, तरबूज, खरबूज, पालक, तोरी भिंडी और भी बहुत कुछ. इस सबंध में द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टीईआरआई) की इसी साल आई रिपोर्ट बढ़िया जानकारी देती है. यहां पैदा हो रही सब्जियों में निकिल, लेड, मर्करी और मैंगनीज जैसी भारी धातुएं सुरक्षित सीमा से कई गुना ज्यादा पायी गई हैं. टीईआरआई का शोध उन्हीं सब्जियों पर आधारित है जो किसी न किसी तरह से यमुना पर निर्भर रही हैं. इनकी वजह ढूंढ़ने पर पता चला कि आज भी दिल्ली शहर में तमाम सरकारी दावों के विपरीत बैट्री बनाने वाली लगभग दो सौ वैध-अवैध फैक्ट्रियां निर्बाध रूप से संचालित हो रही है. इसके अलावा एक और जानकारी आश्चर्यजनक है जिसकी ओर पहली बार लोगों का ध्यान गया है. शहर की सड़कों पर दौड़ रहे लाखों की संख्या में दो पहिया और चार पहिया वाहनों का हुजूम यमुना के प्रदूषण की एक बड़ी वजह है. इनके रिपेयरिंग के काम में लगी हुई तमाम बड़ी सर्विस कंपनियों के साथ-साथ लगभग तीस हजार छोटे मोटे ऑटो रिपेयरिंग शॉप पूरे शहर में कुटीर उद्योग की तरह फैले हुए हैं. सर्विसिंग से पैदा होने वाला ऑटोमोबाइल कचरा, मोबिल आयल आदि भी धड़ल्ले से यमुना के हवाले ही किया जा रहा है. सीपीसीबी के राडार पर अब जाकर ये आए हैं. पर इन्हें रोक पाना कितना मुश्किल या आसान होगा हमें पता है. जो शहर आज तक लोगों को ट्रैफिक के साधारण नियम का पालन करना नहीं सिखा सका, जहां ऑटो वाले आज भी नियमत: मीटर से चलने को राजी नहीं होते वहां एक मरी हुई नदी की फिक्र किसको होगी.

यहां यमुना की हत्या का एक और हिस्सेदार है. इसे जानना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम अपने भोग विलास में जितने लिप्त हैं वह इसी की वजह से है. हमने अपना-अपना घर नए से नए मॉडल वाले टेलीविजन, सबसे बड़े वाले फ्रिज, गर्मी को दो हाथ दूर रखने वाले एसी और सर्दी भगाने वाले हीटरों से सजा रखा है. इसके लिए हमें जरूरत होती है बिजली की. थोडी बहुत नहीं पूरे उत्तर प्रदेश को जितनी बिजली मिलती है उससे ज्यादा दिल्ली की जरूरत है. तो इसका इंतजाम भी दिल्ली ने यमुना के किनारों पर कर रखा है. राजघाट पॉवर स्टेशन, इंद्रप्रस्थ पॉवर स्टेशन और बदरपुर पॉवर स्टेशन कोयले का दहन करके शहर को बिजली मुहैया करवाते हैं. हालांकि सिर्फ इतने से दिल्ली की प्यास नहीं बुझती. दिल्ली विश्वविद्यालय का एक विभाग है भूगर्भशास्त्र विभाग. इसके अध्यक्ष हैं डॉ. चंद्रा एस दुबे. इन्हीं की निगरानी में विभाग ने महीने भर पहले यमुना में आर्सेनिक प्रदूषण का विस्तृत अध्ययन करके एक रिपोर्ट तैयार की है. इसे जान लेना जरूरी है. उपरोक्त तीनों थर्मल पॉवर स्टेशन दहन के पश्चात अपनी फ्लाइ एश का एक बड़ा हिस्सा यमुना में बहा रहे हैं. डॉ. दुबे के मुताबिक राजघाट पॉवर प्लांट हर साल यमुना में अपने फ्लाइ एश के जरिए 5.5 टन आर्सेनिक यमुना के पानी में बहा रहा है. इसी तरह बदरपुर वाले सयंत्र का योगदान सालाना लगभग दो टन है. आर्सेनिक वह गुणी तत्व है जो अच्छे-भले आदमी की कुछ दिनों के भीतर हृदय रोग और कैंसर से मुलाकात करवा सकता है. अक्षरधाम मंदिर और मयूर विहार फेज 1 वाला इलाका ऐसा है जहां यमुना के कछार में मौसमी सब्जियां खूब उगाई जाती हैं. यहां पर टीम ने आर्सेनिक का स्तर 135 पार्ट पर बिलियन पाया. जबकि न्यूनतम सुरक्षित सीमा है 10 पार्ट पर बिलियन.

इस अध्ययन के संदर्भ में एक और बात समझना जरूरी है. कंक्रीट के इस जंगल में सिर्फ यमुना के डूब में आने वाला इलाका ही बचा है जो इस शहर के भूगर्भीय जल को रीचार्ज करने का काम करता है. यहां जो भूगर्भीय जल जांचा गया उसमें आर्सेनिक का स्तर 180 पार्ट पर बिलियन पाया गया है.

यमुना की मौत का एक और साइड इफेक्ट है. सालों साल से हम अपना मल-मूत्र, कचरा, प्लास्टिक जैविक-अजैविक जो यमुना में बहाते आ रहे हैं तो क्या नदी वैसे ही बनी रहती. नहीं, धीर-गंभीर और अपनी गहराई के लिए मशहूर यमुना इन सालों क दरम्यान उथली हो गई है. यहां बरसातों में जो पानी आता भी है वह भू गर्भीय जल को रीचार्ज करने से पहले ऊपर ही ऊपर आगे बढ़ जाता है. जल्द ही हमें इसकी भी कीमत चुकानी पड़ेगी. खैर अपना सबकुछ गंवा कर और जमाने का नरक लाद कर यमुना आगे बढ़ जाती है. दनकौर के पास गाजियाबाद, नोएडा, ग्रटर नोएडा और बुलंदशहर का कचरा समेटे हिंडन नदी यमुना की बची खुची सांस भी छीन लेते हैं. एक समय में यह नदी यमुना को जीवन देती थी. यमुना का अगला पड़ाव है भगवान श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा.

मथुरा से पहले यमुना वृंदावन आती है. यहां चीर घाट पर भक्त नर सेवा नारायण सेवा का नारा लगाते हुए मिलते हैं. समय की मांग है नदी सेवा, नारायण सेवा, जिसे कोई नहीं सुनना चाहता. यहां बड़ी विकट स्थिति का सामना होता है. रसखान ने बहुत रस लेकर मानुष हौं तो वहीं रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन…. जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी-कूल-कदम्ब की डारन लिखा था. अगर कहीं स्वर्ग होगा तो वहां बैठकर रसखान निश्चित ही पुनर्विचार कर रहे होंगे. ब्रज में कालिंदी की दुर्दशा पर तो शायद भगवान कृष्ण भी अब मुंह मोड़ लें. अव्यवस्थित घाट, काम चलाऊ सुविधाएं और सड़क की जगह तीन किलोमीटर लंबी धूल भरी पगडंडी. और इन सबसे पार पाकर जब चीर घाट पहुंचे तो वहां नदी की धार के समानांतर पूरे वृंदावन का सीवर समेटे एर नाला भक्तों का स्वागत कर रहा था. ठीक उसी जगह, जहां श्रद्धालु स्नान कर पुण्य कमा रह थे, वहीं यह नला भी खुद को यमुना में विसर्जित कर पापमुक्त हो रहा था. आंध्र प्रदेश के किसी गांव से आए श्रद्धालुओं का पूरा जत्था वहां कर्मकांड में लीन था. एक भक्त से यह पूछने पर कि यहां स्नान पूजा करने पर आपको दिक्कत नहीं होती है, उनका जवाब धर्म की ध्वजा बुलंद करने वाला था, ‘यमुना माता को कोई क्या गंदा करेगा. ये सब इसमें आकर पवित्र हो जाते हैं.’ यानी चीर घाट पर भी यमुना के चीर हरण की किसी को परवाह नहीं थी. यमुना में फूल-धूप-दीया बत्ती चढ़ाने वाले खुद को पापमुक्त मानकर आगे बढ़ जा रहे थे यह मानकर कि नदी तो खुद ही देवी है उसे क्या कोई गंदा करेगा.    

हम भी आगे बढ़कर मथुरा पहुंच गए. मथुरा में हमारी मुलाकात मसानी नाले से हुई. गर्मी के इस मौसम में अनुमान लगाना मुश्किल है कि मसानी नाला बड़ा है या यमुना बड़ी है. श्मशान के किनारे से बहने के कारण शायद इस नाले का नाम मसानी नाला पड़ गया है हालांकि कोई इस बारे में आश्वस्त नही है. पास ही चाय की दुकान पर बैठे पुरुषोत्तम यादव यमुना की दुर्दशा पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘यमुना तो सूखती-भीगती रहती है. मसानी बारहमासी है.’ मथुरा नगर में जहां भगवान कृष्ण और यमुना के रिश्तों की अनगिनत दंतकथाएं भक्ति-भाव से सुनते-सुनाते आए हैं वहां हमें यमुना की वही दशा देखने को मिली जैसी बाकी जगहों पर थी, कहीं कोई अंतर नहीं था. भगवान कृष्ण की जन्मस्थली का गर्व रखने वाले मथुरावासियों को विचारने का वक्त नहीं है कि उनकी संसक-ति का अभिन्न हिस्सा रही यमुना नाला क्यों बन गई है. कुरेदने पर वे सरकार को कोसते हैं और जब अपनी जिम्मेदारियों को निबाहने की बात छिड़ती है तो वे टाल-मटोल करने लगते हैं.
मथुरा यमुना में कुछ औद्योगिक कचरे से भी योगदान देता है. यहां सस्ती साड़ियों की रंगाई का बड़ा कुटीर उद्योग है. रंगाई-पुताई के बाद सारा रसायन यमुना के हवाले कर दिया जाता है. इसी तरह मथुरा निकिल से बनने वाले नकली आभूषणों का भी बड़ा उत्पादक है. इसके निर्माण से लेकर घिसाई और चमकाई में बहुत सारे रसायनों का इस्तेमाल होता है. और ये सब उसी बेचारी यमुना को समर्पित किया जाता है.
 
आगे महाबन है. कृष्ण भक्त रसखान की चार सौ साल पुरानी समाधि यहीं पर यमुना के किनारे बनी है. यहीं पर गोकुल बराज भी बना है. यमुना यहां से आगे बढ़कर आगरा पहुंचती है जो यमुना के तट पर बसा दूसरा सबसे बड़ा शहर है. यहां भी वही कहानी दोहराई जाती है जो यमुना के साथ पहले के नगरों में हो चुका है. दीपक की तली से लेकर सिर तक अंधेरा हमें आगरा में देखने को मिला. यमुना पर बने नयापुल से सटा हुआ यमुना एक्शन प्लान का दफ्तर है और उसके ठीक बगल से शहर का एक बड़ा सा नाला बिना रोकटोक के यमुना में मिल रहा है. नदी के उस पार ताजमहल है. ताजमहल के ठीक पिछवाड़े में महज सौ मीटर की दूरी पर शहर का एक और बड़ा नाला नदी में खुल रहा है. ठीक यमुना और ताजमहल के बीच मरे हुए जानवर की लाश चील-कौए चिचोर रहे हैं, विदेशी खूब प्यार से इस मनमोहक दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर रहे हैं. यह विश्वप्रसिद्ध ताजमहल है. ताजमहल से ही सटा हुआ दशहरा घाट है. यहां एक पुलिस अधिकारी खुद ही घाट की साफ-सफाई में लगे हुए थे. यह हतप्रभ करने वाला नजारा था. पूछने पर पता चला वे आगरा के पर्यटन थाने के एसओ सुशांत गौर हैं. उनसे बातचीत में पुलिस विभाग की अलग ही तस्वीर सामने आई. अपने देश अपने शहर और अपने लोगों की पहचान के प्रति बेहद जागरुक और चिंतित सुशांत ने किसी वीआईपी के आगमन से पहले खुद ही व्यवस्था की कमान अपने हाथ में ले ली थी. बातचीत में वे कहते हैं, ‘ये विदेशी हमारे बारे में क्या छवि लेकर जाते होंगे. हर दिन मैं लोगों को समझाता रहता हूं कि अपना कचरा यहां न डालें, इसीलिए मैं खुद हाथ में झाड़ू लेकर खड़ा हो जाता हूं. शायद मुझे देखकर लोगों पर कुछ असर पड़े.’

आगरा में यमुना की कुछ और मौतें हैं. हाथीघाट पर शहर का सबसे बड़ा धोबीघाट है. यहां सीवर के पानी में लोगों के कपड़े चकाचक करने का कारोबार चलता है. इसके लिए धुलने वालों ने बड़ी-बड़ी भट्टियां लगा रखीं हैं. इन भट्टियों में नदी का पानी गर्म करके उनका इस्तेमाल किया जाता है और फिर नदी में बहा दिया जाता है. गर्मी, डिटरजेंट और दूसरे रसायनों से भरपूर यह पानी जलीय जीवन के ऊपर कहर बनकर टूटता है. यह गर्म पानी धारा को अवांछित गरमी पहुंचाता है. एक धोबी जो पहले कैमरा और साथ में पुलिस का एक जवान देखने के बाद भागने लगा था काफी मानमनौव्वल के बाद सिर्फ इतना ही कहता है, ‘पीढ़ियों से यही काम करते आ रहे हैं. दूसरा काम क्या करेंगे. हमें कोई और जगह दिला दीजिए हम चले जाएंगे.’ रोजी रोटी के लिए यमुना पर निर्भर लोगों के बारे में भी सोचने का यह आखिरी समय है.

इतनी मौतों के बाद यमुना में कुछ बचता नहीं. पर नदी जो सदियों से बहती आई है वह आगे बढ़ती है. आगरा के बाद यमुना उस इलाके में पहुंचती है जहां इंसानी विकास की रोशनी थोड़ी कम पड़ी है. आगरा से लगभग 80 किलोमीटर आगे बटेश्वर है. यह मंदिरों और घंटा घड़ियालों का नगर है. नदी की बीच धारा में मंदिरों की पक्ति बिछी हुई है. कहते हैं एक समय में इन मंदिरों की संख्या 101 हुआ करती थी. फिलहाल बीच धारा में 42 मंदिर आज भी देख जा सकते हैं. यहां घंटे चढ़ाने की रिवाज है. मेला भी यहां लगता है और चंबल के मशहूर डाकुओं में यहां घंटा चढ़ाने की स्पर्धा भी अतीत में खूब होती रही है.

हम राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या दो पर चलते हुए इटावा पहुंचते हैं. इस हिस्से की सड़क विश्वस्तरीय है. इटावा से करीब 25 किलोमीटर आगे राष्ट्रीय राजमार्ग से अलग उत्तर दिशा की तरफ एक पतली सड़क जाती है भीखेपुर कस्बे तक. भीखेपुर से लगभग बीस किलोमीटर और आगे चंबल के बीहड़ों में यमुना का चंबल नदी के साथ मिलन होता है. इस जगह को पंचनदा कहते हैं. यहां दोनों नदियां मिलने के बाद जुहीखा गांव पहुंचती है. जुहीखा पहुंच कर रास्ता खत्म हो जाता है. आगे जाने के लिए पीपे का पुल हर साल बनता है जो बरसात में टूट जाता है. पिछले साल की बरसात में कुछ पीपे बह गए थे इसलिए इस बार पुल नहीं बन पाया है. पंचनदा की एक कहानी है. इस इलाके में थोड़ी-थोड़ी दूर पर यमुना में चार नदियां मिलती हैं- चंबल, क्वारी, सिंधु और पहुज. इस तरह पांच नदियों संगम से मिलकर बनता है पंचनदा. पर हम पंचनदा तक नहीं पहुंच सके. जुहीखा में जहां सड़क खत्म होती है वहां से लगभग एक किलेमीटर रेत में आगे बढ़ने पर यमुना की पतली धारा बह रही है, पानी साफ है क्योंकि चारो नदियों ने मिलकर यमुना नया जीवन दे दिया है. इनमें सबसे बड़ी चंबल है. देश और दुनिया की कुछेक सबसे साफ-सुथरी नदियों में चंबल का नाम शुमार है. जहां चंबल यमुना में मिलती वहां यमुना और चंबल के पानी का अनुपात एक और दस का है. हम सोच रहे थे यमुना का नाम टौंस या चंबल क्यों नही है. दोनों ही नदियां जहां यमुना से मिलती हैं वहां यमुना से काफी बड़ी हैं.

खैर यमुना के प्रदूषण की मार से देश की सबसे साफ सुथरी नदी चंबल भी नहीं बच सकी है. चंबल अपने अनोखे और समृद्ध जलीय जीवन के लिए भी दुनिया भर में प्रसिद्ध है. इसमें मीठे पानी की डॉल्फिनें मिलती है. चंबल का सबसे विशिष्ट चरित्र हैं भारतीय घड़ियाल. घड़ियाल सिर्फ चंबल नदी में ही पाए जाते हैं. 2008 में अचानक ही चंबल के घड़ियाल मरने लगे. दो महीनों के भीतर सौ से ज्यादा घड़ियालों की मौत हो गई. इस आपदा के कारणों को जानने और रोकने के लिए वरिष्ठ सरीसृप विज्ञानी रौमुलस विटेकर के नेतृत्व में एक टीम ने जांच रिपोर्ट तैयार की थी. रौम कहते हैं, ‘शुरुआती सारे सुबूत एक ही तरफ इशारा करते हैं- यमुना. इस नदी को हमने जहर का नाला बना दिया है. बहुत ईमानदारी से कहूं तो मौजूदा हालात में घड़ियालों और डॉल्फिनों के ज्यादा दिन तक बचे रहने की संभावना नहीं है. मौजूदा कानूनों के सहारे नदी को प्रदूषित कर रहे सभी जिम्मेदार लोगों को रोका नहीं जा सकता. एक अरब की भीड़ से कैसे निपटेंगे आप?’

घड़ियालों की मौत में यमुना की भूमिका पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार करने वाले घड़ियाल कंजरवेशन अलायंस के एक्जक्युटिव ऑफिसर तरुन नायर कहते हैं, ‘हमारे टेलीमिट्री प्रोजेक्ट में यह बात सामने आई कि 2008 में बहुत से घड़ियालों ने अपने घोसले यमुना-चंबल संगम के बीस किलोमीटर के दायरे में बनाए थे. इसी बीस किलोमीटर के इलाके में ही सारी मौते हुई थी.’ घड़ियालों की मौत का दाग अपने सिर पर लेकर यमुना बीहड़ से आगे एक बार फिर खुले मैदानों की ओर बढ़ जाती है. बुंदेलखंड (काल्पी, हमीरपुर) के कुछ इलाकों को छूती हुई यह इलाहाबाद पहुंच जाती. हजार मौतें मरने के बाद यमुना अपना अस्तित्व अपने सहोदर गंगा में समाहित कर देती है. लोग इसे प्रयाग का विश्वप्रसिद्ध संगम कहते हैं.

इतनी भाषणबाजी के बाद कोई पूछेगा कि इसका उपाय क्या है? तो हम बता दें कि हमने यह यात्रा उपाय बताने के लिए नहीं की थी हमारा मकसद सिर्फ यमुना की दशा खुद जानना और अपनी आंखो देखी लोगों के सामने रखना था. उपाय के सावल पर जल थल मल विषय पर शोध कर रहे सोपान जोशी कहते हैं, ‘हम नदी से सारा पानी निकाल लेना चाहते हैं और अपना गू-मूत उसी में बहाना चाहते हैं. आज विकसित उसे माना जाता है जिसके पास नल में पानी हो और बाथरूम में फ्लश. यमुना कभी देवी रही होगी, आज तो बिना पानी के शौचालय जैसी है, जिसमें फ्लश करने के लिए कुछ भी नहीं है.’

तो क्या कोई रास्ता नहीं है? जवाब में अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘हमारे समाज ने बरसात में गिरने वाले पानी के हिसाब से अपनी अर्थव्यवस्था, इंजीनियरिंग तय की थी न कि बांधों और दूसरे के हिस्से का पानी छीन लाने की कला के आधार पर. विकास के नए विचार ने उस व्यस्था को भुला दिया है. हम अपने शहर गांव जल स्रोतों के रास्ते में बनाने लगे हैं. दूसरे शहरों गांवों के हिस्से का पानी छीन लाने के मद में ऊपर से गिरने वाले पानी का मोल भूल गए हैं. जमीन और नदी से जितना लेना है उतना ही उसे बरसात के महीनों में लौटाना है, यह फार्मूला हम भूल गए हैं, पानी के लिए जमीन छोड़ना भूल गए हैं. इसे ही आप चाहें तो उपाय मान सकते हैं.’ Image

Advertisement

टिप्पणी करे

Filed under Uncategorized

आधी-अधूरी, अलोकतांत्रिक चर्चा

उदयन शर्मा की स्मृति मे कंस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित सेमिनार का विषय था, ”लॉबिइंग, पैसे के बदले खबर और समकालीन पत्रकारिता”. ज्यादातर महानुभावों ने अपनी मजबूरियां गिनाते हुए पैसे के महत्व को जायज ठहराने की कोशिशें की. एक रामबहादुर राय ने कुछ हिम्मतखेज बाते कह कर उम्मीदें जगाई, प्रभाषजी की याद दलाई और साथ ही जवान खून के समझौतावादी रुख पर बूढ़ी हड्डियों की प्रत्यंच तानी. एक और खास, बात पूरी बहस के दौरान मीडिया में पैसे के जोर की तो सबने जमकर चर्चा की लेकिन सेमिनार के पहले हिस्से लॉबिइंग को सब एक सिरे से भूल गए. हाल के दिनों में जिस तरह से देश के दो बड़े स्वनामन्य पत्रकारो के नाम लॉबिइंग की दुनिया में उछले हैं उसके बाद उम्मीद थी कि इस पर भी कोई सार्थक बहस होगी. लेकिन मीडिया की ज्यादातर बहसों की तरह ही यहां भी कुछ चीजों को नकार कर, कुछ चीजों को जानबूछ कर दरकिनार कर सभा विसर्जित हो गई. लॉबिइंग में पत्रकारों का शामिल होना क्या किसी खतरे की निशानी नहीं है. जिस नेता के लिए आज पत्रकार लॉबिग कर रहा है कल उसके कुकृत्य पर वह या उसका संस्थान क्या कोई खबर भी छाप या दिखा सकेगा? सवाल तमाम है. उदयन स्मृत व्याख्यान की प्रक्रिया बेहद अलोकतांत्रिक रही. वहां मंच पर बैठे वक्ताओं को बोलने का मौका दिया गया, सबने अपनी बात कही और चाय-पानी का दौर शुरू हो गया. कार्यक्रम का नाम संवाद था लेकिन श्रोताओं से किसी तरह का संवाद स्थापित करने की कोशिश तक नहीं की गई. कोई सवाल जवाब नहीं हुआ. ये एकतरफा संवाद बड़ा मजेदार लगा…

टिप्पणी करे

Filed under Uncategorized

धर्मेंद्र पाठक का पत्र : पाखंड पुराण

एक पिता अपनी बेटी को पत्र लिख कर किस तरह से इमोशनली ब्लैकमेल कर सकता है, किस हद तक कर सकता है, इमोशनल ब्लैकमेल के साथ धमकी के इशारे दे सकता है और इशारों के साथ पाखंड का जखीरा पेश कर सकता है इस सबका नमूना है धर्मेंद्र पाठक द्वारा अपनी बेटी (शायद उन्हें इसका अधिकार नहीं) को लिखा पत्र. पाठक बार-बार धर्म के प्रतिकूल आचरण पर विनाश की चेतावनी देते हैं और जाने अनजाने ही वे अपनी उस जातिगत कुलीन मानसिकता का परिचय भी देते जाते हैं जिसे उन्होंने इक्कीसवीं सदी में भी सनातन धर्म, परंपरा, शुचिता, आचरण के दोमुंहे खाल में छिपा कर जिंदा रखा है.

 खुद के पांव किस हद तक पांखंड के दलदल में बिंधे-गुथे हैं इसकी बानगी उनके पत्र के एक एक वाक्य से टपकती है. अपनी बेटी को नीचे कुल के वर के साथ न ब्याहने का उनका एकमात्र तर्क है सनातन परंपरा जिसमें इस रिश्ते की अनुमति नहीं है. पर उनकी मानसिकता से उन तालिबानी कट्टरपंथी जेहादियों की स्पष्ट बू आती है जो कुरान के ढाई हजार साल पुराने स्वरूप में किसी तरह की व्याख्या को सिरे से नकारते हैं, उनके शास्त्र में पूर्व की किसी गलत परंपरा को सुधारने की कोई गुंजाइश नहीं है बल्कि गलत परंपरा के नाम पर इंसानियत का बार-बार गला घोंटने की खुली छूट है. बस उनमें और तालिबानियों में अंतर इतना है कि इन्होंने शिक्षित और आधुनिकता की भेंड खाल ओढ़ रखी है जिसके अंदर भेंड़िये की आत्मा बार-बार कसमसाती है और जब-तब निरुपमा जैसियों की खून से अपनी प्यास बुझा लेती है.

पाखंड का सिरा पाठक परिवार के एक सिरे से शुरू होकर अंत तक चला जाता है. खुद एक बैंक के प्रबंधक पद पर तैनात पाठक जितनी आसानी से अपनी बेटी को लिखे पत्र में भारतीय संविधान के महज साठ साल का होने की बात कह हवा में उड़ा देते हैं उसी व्यवस्था की मलाईदार सुविधा उठाने में उनकी आत्मा कतई नहीं झिझकती. पाठक जिस सनातन परंपरा की दुहाई अपनी बेटी के वर के संबंध में देते हैं खुद उसी परंपरा के हिसाब से जीवन व्यतीत करने का उनका जी नहीं होता. भगवान जाने कितने कर्म-कुकर्म अपने बैंक प्रबंधकीय जीवन में उन्होंने खुद किए होंगे तब उनकी आत्मा कतई सनातन धर्म की बाट नहीं जोहती. पाठक यहीं आकर नहीं रुकते. अपने दोनों बेटों को उन्होंने उसी व्यवस्था के तहत इन्कम टैक्स विभाग और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का रिश्तेदार बनाने में उनकी सनातन परंपरा आड़े नहीं आती जिसके साठ साल का होने की खिल्ली वो एक झटके में उड़ा देते हैं.

उनका पाखंड पत्र के अगले हिस्सों में भी जारी रहता है. बेटी को वो समझाते हैं (धमकी देते हैं) कि मां-बेप बेटी को इसलिए पढ़ाते लिखाते हैं ताकि वो उनका यशवर्धन कर सके. साफ है कि ये बाप अपने यश और कीर्ति की लालसा में किसी हद तक जा सकता था. क्योंकि इसकी अगली ही पंक्ति में वो कहते हैं इसके विरुद्ध किया गया कोई भी आचरण तुम्हारा विनाश कर देगा. क्या निरुपमा के विनाश का ये पूर्व संकेत था जिसे वो समझ नहीं सकी थी. या मां-बाप और परिवार को मना लेने का आतिशय आत्मविश्वास जिसे परिवार के झूठे, पाखंडी अहम ने तार-तार कर दिया. कुल मिलाकर ये एक पाखंडी परिवार का कृत्य जान पड़ता है जिसकी एक एक कारगुजारी से कपट और पाखंड टपकता है लेकिन ये अपने ऊपर समाज के सबसे कुलीन और सभ्य होने का लबादा ओढ़ कर चलते हैं.

अतुल चौरसिया

टिप्पणी करे

Filed under Uncategorized

क्योंकि शाहरुख को आपकी जरूरत है-2

सपोर्ट शाहरुख

क्योंकि उन्होंने अमिताभ और करण जौहर की तरह मांद के मेमनो से माफी मांगने से इनकार कर दिया.

क्योंकि उनके समर्थन में उन्हीं की जमात का कोई आगे नहीं आ रहा जबकि ज्यादतर इसके शिकार हो चुके हैं या हो सकते हैं.

क्योंकि शाहरुख को अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए किसी ऐरे-गैरे की जरूरत नहीं है.

क्योकि ये ओछी वोट की राजनीति है

क्योंकि ये खुद को देश, कानून और संविधान से ऊपर समझने की खतरनाक कोशिश है

क्योंकि सचिन तेंदुलकर और मुकेश अंबानी को इसी तरह के बयानों पर न तो ज्यादा सफाई देने की जरूरत होती है नही इन लोगों की ज्यादा सफाई मांगने की हिम्मत होती है.

क्योंकि सिर्फ खान होना इस देश में कोई गुनाह नहीं है

क्योंकि मुंबई को सिर्फ तीन इडियट्स (बाल राज उद्धव ठाकरे) के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.

क्योंकि ये माफी मंगवा कर अपने अहं को तुष्ट करने की कोशिश है जो किसी भी समप्रभुता संपन्न व्यक्ति को स्वीकार नहीं होनी चाहिए.

क्योंकि अगर इस बार शाहरुख ने भी माफी मांग ली तो फिर प्रतिरोध की अंतिम उम्मीद भी खत्म हो जाएगी.

क्योंकि उनकी अपनी जमात के लोगों ने (आमिर, अमिताभ, करण) माफी मांग कर जिस रीढ हीनता का परिचय दिया है वो आदत इसके बाद एक परंपरा बन सकती है.

क्योंकि चुप बैठने से कुत्ता भी पैर पर सू-सू करने की हिम्मत कर बैठता है…

3 टिप्पणियां

Filed under Uncategorized

क्योंकि उनको आपकी जरूरत है

सपोर्ट शाहरुख- क्योंकि उन्होंने अमिताभ और करण जौहर की तरह मांद के मेमनो से माफी मांगने से इनकार कर दिया.
क्योंकि उनके समर्थन में उन्हीं की जमात का कोई आगे नहीं आ रहा जबकि ज्यादतर इसके शिकार हो चुके हैं या हो सकते हैं.
क्योंकि शाहरुख को अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए किसी ऐरे-गैरे की जरूरत नहीं है.
क्योकि ये ओछी वोट की राजनीति है
क्योंकि ये खुद को देश, कानून और संविधान से ऊपर समझने की खतरनाक कोशिश है
क्योंकि सचिन तेंदुलकर और मुकेश अंबानी को इसी तरह के बयानों पर न तो ज्यादा सफाई देने की जरूरत होती है नही इन लोगों की ज्यादा सफाई मांगने की हिम्मत होती है.
क्योंकि चुप बैठने से कुत्ता भी पैर पे सू-सू करने की हिम्मत कर बैठता है…

टिप्पणी करे

Filed under Uncategorized

गांधी की मानें की नेहरू की मानें

अगर सरकार के दो मंत्री तीन महीने तक, पांचसितारा होटल के, प्रेसिडेंशियल सूट में रहते हैं तो बहुतेरी कहानियां कहीलिखी जा सकती हैं. कहानियां अखिल भारतीय परंपरा अनुसार पक्ष में भी लिखी जा सकती हैं और विपक्ष में भी. कुछ बातें तो मंत्रियों ने खुद ही लोगों के सामने कह डालीं मसलन हमारा पैसा चाहे जैसे खर्च करें किसी को क्या. विशुद्ध वणिक सिद्धांतों की कसौटी पर बात खरी है. वैसे भी कौन सा उनका पैसा किसी और के काम आता या उससे बड़ी देश सेवा हो जाती या कि सामाजिक सरोकारों में पैसा लग जाता आदिआदि. जैसे चाहे वैसे खर्च करें उनकी मर्जी. वैसे भी देश गांधी को छोड़कर बहुत आगे निकल चुका है. आज तो गंगा का बहुत पानी बह चुका है, समय की गति बदल रही है‘, जमाना कहां से कहां पहुंच चुका है आप वहीं अटके हुए हैंजैसी सनातन सत्य जुगालियों की आदत लोगों को पड़ चुकी है. ऐसे में यहां कमरों की बहस में पड़ना कहां कि समझदारी है. आज जब हम महाशक्ति बनने की राह पर हैं उस दौर में इस तरह के दकियानूसी विचार भला किस लिहाज से सही हो सकते हैं. महाशक्ति की बात करते समय हमारे सामने किसका चेहरा आता हैअमेरिका का ही तो आता है न. पिछली एक सदी से अगर किसी को महाशक्ति का दर्जा मिलना चाहिए, अगर किसी ने इस पद का स्वाद चखा है (अगर धरती नामक ग्रह पर महाशक्ति जैसी किसी परम सत्ता का कहीं अस्तित्व है तो) तो वो है अमेरिका. हम अगर उसी राह पर बढ़ना चाहते हैं तो प्रतीक भी अमेरिका ही होगा. इसी प्रेरणा की धार में दोनों मत्रीजी भी बह गए. वहां के नेता मंत्रियों की ठाठ से मुंह छिपाए कब तक बरदाश करते. और तीन महीने की क्या रट लगा रखी हैसत्यानाशी, उंगलीबाज, फटे में अड़ाने वाले अखबारियों को पता न चलता तो तीन साल भी रहने में बुराई क्या थी? किसी का सुखचैनशांति तो इनसे देखी नहीं जाती उल्टे बातबात में दुनिया में अशांतिअस्थिरताआतंक की चकरचकर किए रहेंगे.  जहां तक बातबात में गरीब, मजलूम, आम आदमी के नारे की बात है तो ये चीजें इस देश में द्रौपदी का चीर भर समझो जिसे कभी भाजपाई तो कभी कांग्रेसी और कभीकभार दांव लग जाए तो तीसरे मोर्चे के दुशासन मौका और वक्त की नजाकत के साथ जम कर हरते रहते हैं. बेचारी द्रौपदी पांच हजार साल पहले द्वापरयुग में भी हरी गई और आज पांच हजार साल बाद कलियुग में भी उसकी नियति जस की तस है. भला हो गोकुल नंदन का जिन्होंने उस वक्त भी अस्मिता बचाई और आज भी किसी न किसी रूप में बचाते चल रहे हैं. ‘इस देश का भगवान ही मालिक हैकी तोतारंटत इसी परम श्रद्धा की परिणति है जिसे हर भारतीय परमब्रह्म की अवस्था में जब तब, चलतेफिरते दे मारता है.

जिस सवा अरब की आबादी में दो चार फीसदी लोगों के लिए भी पांच सितारा सुविधाओं में रहने की औकात न हो उसके जन प्रतिनिधि इस तरह का नंग प्रदर्शन कैसे कर सकते हैं? बात आदर्श और नैतिकता की हो रही है याद रखिएगा. पर काहें कि नैतिकता और कैसा आदर्श जहां मुख्यमंत्री जेल जाने की स्थिति में भी कुर्सी पर जमें रहने की कोई राह नहीं छोड़ता, जहां जीतेजी अपनी ही मूर्तियों की लड़ी बना कर पूरे शहर को पाट देने से भी आत्मा शर्मिंदा नहीं होती, 10 हजार साड़ियों और तीन हजार जोड़ी चप्पलों वाली नेता जिस देश में विराजमान हो, जिस देश का गृहमंत्री बम धमाकों के तीन घंटे के भीतर तीन जोड़ी कपड़े बदल डालता हो और जवाब में कहता हो मुझे मैडम का आशीर्वाद है, जिस देश में हजारदो हजार हत्याओं के बाद भी नेता मुख्यमंत्री बना रह सकता हो वहां नैतिकताफैतिकता का भाषण ज्यादा मत झाड़ा करो. और एक बात का ध्यान रखना बातबात में गांधीशास्त्री का उदाहरण देने की जरूरत नहीं है. उन्हें जाने कब का उन्हीं के लोगों ने किनारे लगा दिया है. ये नैतिकता कहीं किसी अवागाद्रो की किताबी परिभाषा में तो लिखी नहीं गई है कि इसे अंतिम सत्य मान लिया जाए. मानने की बात है, मानो तो देव नहीं पत्थर. गांधीशास्त्री मानते थे नेहरू नहीं मानते थे. हम भी नहीं मानते

अतुल चौरसिया

1 टिप्पणी

Filed under Uncategorized

पिंक चड्ढी अभियान और महिलाओं की पहली जीत

sriramsena1विरोध का का अनोखा तरीका अपनाने वाली महिलाओं की कोशिश रंग लाई है. पिंक चड्ढी अभियान के जरिए प्रमोद मुतालिक और उनकी श्रीराम सेना का विरोघ करने की मुहिम रंग लाई. ख़बर है कि देश भर की महिलाओं और पुरुषों की तरफ से मिल रही चड्ढियों आजिज आकर और अगले एक-दो दिन में मिलने वाली चड्ढियों की मार से बचने के लिए प्रमोद मुतालिक ने अपने ऑफिस का पता बदल दिया है। अब वो अपने पुराने पते वाले कार्यालय को बंद कर रहे हैं. पर अभियान की सदस्य निशा सूज़न के मुताबिक लोग अपनी चड्ढियां उनके ब्लॉग पर दिए गए पतों, फोन नंबरो और चड्ढी कलेक्शन सेंटर पर जमा कर सकते हैं. यहां से उनके विरोध की प्रतीक चड्ढियां प्रमोद मुतालिक को भेज दी जाएंगी. विरोध के इस गांधीवादी तरीके ने छोटी ही सही पर पहली कामयाबी तो हासिल कर ही ली है. और मुतालिक का डर ये साबित कर रहा है कि उन्हें भी कहीं न कहीं इस बात का अहसास हो गया है कि वो बहुमत की नुमाइंदगी नहीं करते हैं.

7 टिप्पणियां

Filed under Uncategorized

सुरेश चिपलूनकर की पिंक चड्डी से चिढ़न और जवाब

सुरेशजी आपने निशा के अभियान के चपेटे में तहलका को भी ले लिया है. इसलिए तहलका का एक पत्रकार होने के नाते आपकी कुछ बातों का जवाब देना बहुत जरूरी हो जाता है.
आपने तहलका का जिक्र किया है और लगे हाथ उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए हैं. सिर्फ इस आधार पर कि निशा ने तहलका का पता दिया है. निशा तहलका की पत्रकार हैं और एक पता देने की जरूरत ने ऐसा करवाया. इसके अतिरिक्त तहलका का इस अभियान से किसी तरह का वास्ता नहीं है. और जिस तहलका की विश्वसनीयता को आप संदेहास्पद मानते हैं उसे आप जैसे किसी व्यक्ति के प्रमाण की दरकार नहीं हैं. आज तक तहलका ने जो किया है उसकी सत्यता पर किसी तरह की उंगली नहीं उठी है, देश के सर्वोच्च न्यायालय ने तहलका को प्रमाण दिया है. देश के करोड़ो लोग तहलका पर विश्वास करते हैं. लिहाजा अपना संदेह अपने पास रखें.
– रही बात एक एक मामले में निशा की हिस्सेदारी की तो आपको पता होना चाहिए कि देश में लाखों की संख्या में पत्रकार हैं और संभव नहीं कि हर विवाद में हर पत्रकार शिरकत करे ही करे. और तहलका को आपने खींचा है तो आपको पता होना चाहिए कि अकेले तहलका ने स्कारलेट बलात्कार-हत्याकांड को अपनी कवर स्टोरी बनाया है (29 मार्च 2008 अंक, गोइंग गोइंग गोवा)
– आपने पूछा है कि पिंक चड्डी भेजने से महिलाओं को नैतिक बल मिलेगा. अगर अबला, असहाय स्त्री को सरेआम पीटने से संस्कृति की रक्षा होती है तो पिंक चड्डी भेजने से नैतिक बल क्यों नहीं मिल सकता?
– दिल्ली की पत्रकार के बलात्कार की कितनी जानकारी निशा को है इसकी जानकारी तो आपको उनसे बात करके ही पता चलेगी. हो सकता है उनकी जानकारी आपको बगले झांकने पर मजबूर कर दे.
– तस्लीमा नसरीन के जरिए तहलका को घेरने की कोशिश भी की है आपने. आपकी जानकारी पर तरस आता है अकेले तहलका ऐसा संस्थान है जिसने दो-दो कवर स्टोरी तस्लीमा को देश से निकाले जाने के बाद की थी. इसके अलावा छोटी-मोटी खबरों की गिनती नहीं है. मुसलमानों को गरियाने वाली तस्लीमा की फिक्र है आपको पर एमएफ हुसैन की परवाह नहीं. ये दोगलापन क्यों?
आखिरी एक लाइन में श्रीराम सेना से अपना गला छुड़ा कर पोलिटिकली करेक्ट होना भी दोगलेपन की निशानी है. हिंदी में कहावत है गुण खाओ और गुलगुले से परहेज. इस भड़ास की वजह सिर्फ ये है कि आपने बिना जाच-पड़ताल किए जबरिया एक व्यक्तिगत अभियान में तहलका को घसीट लिया हैं. कोई और शंका हो तो संपर्क कर सकते हैं.
दो बातें और साफ कर दूं. शायद निशा के अभियान को आप ठीक से समझ नहीं सके हैं. उसने पहले ही साफ कर दिया था कि वैलेंटाइन डे से उसका कोई लेना-देना नहीं है, न ही वो उसकी समर्थक या बैरी है. उसका विरोध सिर्फ श्रीराम सेना के तरीके, उनकी स्वयंभू ठेकेदारी, दूसरों की व्यक्तिगत आजादी का फैसला कोई तीसरा करे जैसे कुछ बेहद मूल मसलों से है.

एक बेहद मौजू सवाल है कभी शांति से दो मिनट मिले तो विचार कीजिएगा. यदि अपकी पुत्री, पत्नी या बहन भरे बाजार इन मतिहीनों का शिकार हो जाने के बाद भी आपकी प्रतिक्रिया क्या यही रहेगी? किसी को भी किसी महिला से ज्यादती करने का अधिकार सिर्फ संस्कृति रक्षा के आडंबर तले दिया जा सकता है क्या?  उत्तर शायद नकारात्मक आए.

अतुल चौरसिया

10 टिप्पणियां

Filed under Uncategorized

मुंबई टू मैंगलोर वाया अपनी अपनी सुविधा से

पहले मुंबई में राज समर्थकों की गुंडई पर जमकर सियासत हुई, अब मैंगलोर में वही कहानी दोहराई जा रही है. कांग्रेस जमकर हल्ला बोल रही है कि मुतालिक के रिश्ते भाजपा से हैं, उसे कर्नाटक की भाजपा सरकार का संरक्षण प्राप्त है. ये काफी कुछ मुंबई में मनसे के गुंडो द्वारा की गई गुंडई के रिप्ले जैसा ही है, बस मंगलोर में करने वाले मुंबई में कांग्रेस सरकार पर हमलावर मुद्रा में थे तो मुंबई में करने वाले मंगलोर में हमलावर बन गए हैं. मनसे की खुलेआम-बेलगाम गुंडई पर मूकदर्शक बने पुलिस और प्रशासन की भूमिका से ये बात समझते देर न लगी कि सत्तासीन कांग्रेस सरकार मनसे को शह देकर शिवसेना-भाजपा गठबंधन की गांठ में दरार डालना चाहती थी. ले देकर उसे इस बात का पूरा यकीन था कि मनसे वोटो का जितना काटापीटी करेगी वो शिवसेना-भाजपा के पाले से ही आएगा. और हर्र लगे न फिटकरी कांग्रेस की तूती महाराष्ट्र में बोलती रहेगी.
अब काफी कुछ ऐसा ही मंगलोर हादसे के बाद देखने को मिल रहा है. बस यहां पर मुंबई में कांग्रेस को घेरने वाली शिवसेना-बीजेपी यहां बचाव की मुद्रा में है तो मुंबई में रक्षात्मक रही कांग्रेस यहां हमलावर बन गई है. पर कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि विचारधारा कोई भी हो राजनीति का रंग एक लगे है, इसका ढंग एक लगे है इसकी मोटी चमड़ी पर जल्दी शिकन-सिलवटें नहीं पड़ती.
टाइम्स नाउ पर कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी चिल्ला-चिल्ला कर लोकतांत्रिक मूल्यों के हनन की दलील दे रहे थे पर मुंबई की बात पर वो बेहयाई की हद तक बात को गोल मोल कर देते है. काफी कुछ ऐसा ही स्मिता ईरानी भाजपाई कुनबे की ओर से कर रही थी. पर पुरानी और सौ फीसदी खरी बात है- किसी के पास जितना कम सच होता है वो उतना ही ज्यादा हल्ला मचाता है.

दरअसल समस्या हमारी उस जड़ से जुड़ी है जिसे हमने किसी दौर में अपनी अस्मिता, स्वाभिमान और राष्ट्रप्रेम के नाम पर दबे-छुपे ही गर्व के साथ स्वीकार किया था. 80-90 के दशक में जब पाकिस्तान के विरोध के नाम पर शिवसेना के गुंडे वानखेड़े से लेकर फिरोजशाह कोटला तक की पिचें खोद रहे थे तब हमने अंदर ही अंदर तहेदिल से इसका स्वागत किया था. कहीं न कहीं शिवसेना की ये फासीवादी हरकतें हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान की प्रतीक सी बन गई थी. वो हमारे दबे मनोभावों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं. और उस अंध आवेग में हमने देश में पड़ रही एक विकृत परंपरा की विषबेल की अनदेखी ही नहीं की बल्कि उसे पनपाने में भी पूरी मदद की. लोकतांत्रिक देश में लाठी के जोर पर अपनी मनमानी करवाने की उस शुरुआती चरण को हमने पूरा समर्थन दिया, कहीं से भी सरकारों ने उसे ग़ैरकानूनी मानकर कार्रवाई की जहमत नहीं उठाई. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि फासीवाद का ये चेहरा राष्ट्रवाद के मुखौटे में छिपकर हमसे रूबरू हो रहा था. दूसरे उसका निशाना हमारे मानस गहरे तक बैठ चुका स्थाई दुश्मन पाकिस्तान था इसलिए भी शायद दबे-छुपे ही सही सबने उसका स्वागत किया था. 1965 औऱ 71 के दौर की यादें अभी पूरी तरह से ओझल नहीं हुई थी, मन में कड़वाहट लिए ये पीढ़ी उस दौर की गुंडई पर मन ही मन मुस्करा रही थी. किसी ने भी अंदर ही अंदर फैलते उस भस्मासुर पर नजर नहीं डाली जो आज पूरी हिंदुस्तानी व्यवस्था का सर्वनाश करने पर उतारू है. गांधी के देश में लाठी के जोर से सबकुछ हासिल कर लेने की जो विनाशक लहर चल रही है इसका खामियाजा गृहयुद्ध से लेकर देश के एक और बंटवारे तक कुछ भी हो सकता है.हर पैमाने पर हम पीछे की ओर बढ़ रहे हैं. मध्ययुगीन परंपराओं के प्रति हिंदुस्तानियों का प्रेम बढ़ता जा रहा है. भारत की सबसे बड़ी विशेषता इसकी सहिष्णुता खत्म होती जा रही है. महिला पूजनीय होती है पर सरेआम उसकी पिटाई करने में हमें कतई शर्म नहीं आती है. माता स्वरूपा को निर्वस्त्र करने में 30-40 लफंगों का समूह बड़ी शान समझता है. और सत्ता के ऊपरी पायदान पर विराजमान लोग वहीं से इन मोहरों को मौन सहमति देते रहते हैं. अपने घर के भीतर जिनकी नहीं चलती वो लोग पूरे समाज को अपने इशारों पर चलाने की हवा-हवाई कल्पनाएं पाले जंगलराज फैला रहे हैं. समाज के सबसे बड़े हितैषी बनने का दावा कर रहे ये लोग एक बार अपने घरों में भी पूछ लें कि उनके इस कुकर्म से किस हद तक उनकी माताएं-बहने सहमत हैं. पर ऐसा नहीं होगा क्योंकि फासीवाद तर्क-वितर्क में विश्वास नहीं करता. उसे सिर्फ बंदूक की भाषा आती है उसी पर विश्वास करता है. एक औऱ तालिबान हिंदुस्तान में भी तेजी से पैर पसार रहा है कहना बहुत छोटी बात होगी.

विडंबना की बात है जिस देश ने अभी-अभी 26/11 देखा है, जिसके सामने विदेश से आयातित कट्टरपंथी आतंकवाद एक विकराल समस्या बन गया है वो खुद ही उन्हीं कट्टरपंथियों की राह पर चल रहा है, गाहे-बगाहे उन्हीं की भाषा बोल रहा है. जिन्हें 26 नवंबर को हम एक सुर से गरियाते फिरते हैं अगले दिन उन्हीं की राह अपनाने में हमें कोई शर्म नहीं आती है. एक बात और जो मन को बार-बार झिंझोड़ती है- पिताजी बचपन में सिखाते थे पढ़ लिख लो वरना कसाई टोले वालों की तरह मोटर मैकेनिक बन कर रह जाओगे. थोड़ा और बड़े हुए थे तो पिताजी समझाते थे पढ़ोगे लिखोगे नहीं तो क्या कश्मीर-पंजाब वालों की तरह हथियार लेकर लोगों की हत्या करोगे. बाद में जब घर से बाहर निकले तो पिताजी परेशान हो गए ये क्या हो रहा है पड़ोस में तालिबान का उदय हो रहा है. ये लोग औरतों महलाओं को पढ़ने-लिखने तक नहीं देते, उन्हें बाहर तक नहीं निकलने देते. पिताजी के विचार चाहे जो रहे हों, भले ही किसी तरह का भेदभाव रहा हो, भले ही किसी विशेष वर्ग के लिए कुंठा रही हो पर एक बात तो साफ थी ही कि उन्हें इस बात पर गर्व था कि इस देश का बहुसंख्यक समझदार, पढ़ा लिखा होता है, जाहिल नहीं होता. हमें इसी बात पर गर्व होता है कि हिंदुस्तानी कूप-मंडूक नहीं है. तालिबानियों की तरह हम किसी पर जंगली कानून नहीं थोपते, सभ्य समाज की भूमिका पर विश्वास करते हैं. पर क्या आज ये बातें किसी लिहाज से सच लगती हैं?
अतुल चौरसिया

टिप्पणी करे

Filed under Uncategorized

बेशरम मुखिया और ग़ैरजिम्मेदार नागरिक

धमाके होने पर भी अगर देश के गृहमंत्री को तीन घंटे में तीन बार कपड़े बदलने की चिंता ज्यादा हो तो ये सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि नाकारा लोगों की फौज के सिर पर जरूर किसी न किसी माई-बाप का वरदहस्त है। दिल्ली के रिसते जख्मों के दो दिन बीतते-बीतते जब ये अटकलें लागई जा रही थी कि शायद अब बहुत हो चुका, इस बार बांसुरीवादव नीरो को उसकी बेपरवाह छवि के लिए बख्शा नहीं जाएगा तभी अचानक उसने ये खुलासा करके उस आशंका को सही साबित कर दिया कि उसके सिर पर महामाता सोनिया का आशिर्वाद पूरी दृढ़ता से विराजमान है।

 

निर्दोष खून से इनकी आत्मा नहीं पिघलती, जितेंद्र स्टाइल में नख-शिख श्रृंगार करने की अदा आम लोगों की सुरक्षा पर भारी पड़ रही है। पर पाटिल नाम्ना बेशर्मी की चादर ओढ़े ये बयान देते हुए नहीं सकुचाता कि उसे सोनिया गांधी का पूरा समर्थन हासिल है यानि उसकी कुर्सी को कोई छू नहीं सकता। तो क्या निकम्मों को बनाए रखने का सारा जिम्मा सोनिया ने उठा रखा है? जनता के दरबार में जिस पाटिल को 2004 के चुनाव में सिरे से नकार दिया गया था उसे अगले ही दिन मंत्रिमंडल में शामिल करके सोनिया ने जता दिया कि जनता कोई देश की मालिक थोड़े ही है। वो तो भेड़ बकरियों की जमात है, उसे जो कहना था कह दिया अब किसे क्या देना है ये फैसला तो देश की महारानी को करना है। सो उन्होंने नख-शिख श्रृंगारप्रेमी को गृहमंत्रालय जैसा महत्पूर्ण पदभार सौंप दिया। तुरंत ही ये संदेश दिमाग में घूमा कि यहां उसी को परम पद मिलेगा जो रीढविहीन, आंख-नाक-कान बंद रखने की कला और 24 घंटे साष्टांग दंडवत योग की माया में निपुण होगा। जिसकी जी-हुजूरी जितनी तेज़ सुनाई पड़ेगी उसे उतना ही उच्चफल प्राप्त होगा। जी-हुजूरी से कन्नी काटे अर्जुन की बुढापे में दुर्दशा भला किसी से छिपी है। बहरहाल ये कुनबे की बात है उनकी सिरफुटौव्वल वो ही जाने। अपना सरोकार सिर्फ ये है कि कब तक लोग खून के आंसू रोएंगे और हम उनकी आध्यात्मिक ओज से भरी बकवास सुनेंगे। पर वो ये न समझें कि सत्ता हमेशा महारानी के पैरों की दासी बनी रहेगी। बेगुनाहों का खून उन्हें भी एक दिन सड़क पर ला खड़ा करेगा। पड़ोस की आग से आंख मूंद कर बैठे लोग यूं ही नहीं सो सकते वो आग कब उनके अपने घरों को दबोच लेगी किसी को इसका अंदाज़ा भी नहीं लगेगा। ज्यादा दूर नहीं हैं उनकी गिरेबान भी।

 

एक दो कौड़ी का इंडियन मुजाहिदीन इतने विशाल विकराल भारतीय गणराज्य के साथ आंख मिचौली का खेल खेल रहा है, खुलेआम चुनौती दे रहा है। लाखों का अमला, करोड़ों-अरबों रूपए का बजट डकारने के बाद भी पूरी तरह से क्लूलेस है। एक के बाद एक धमाके हो रहे हैं और किसी भी एक मामले को उसके अंजाम तक पहुंचाने में सरकारी अमला अक्षम है। 

 

 

धमाकों के बाद आम जनता को जो तकलीफें होती हैं, जो जख्म मिलते हैं, जिनके अपने बिछड़ जाते हैं उनका दर्द तो दूसरा कोई नहीं समझ सकता। पर एक सुर से पुलिस प्रशासन से लेकर सरकार को कोसने का सिलसिला जरूर शुरू हो जाता है। आम आदमी के इस बर्ताव में उसकी बेचारगी, उसकी मजबूरी और उसका दर्द छिपा होता है। और फिर वही आम आदमी आतंकवादियों से मुकाबले के लिए क्या कर रहा है? दिन भर हॉक्स कॉल, बम रखने की अफवाहें फैला रहा है। क्या इसी रुख से आतंकवाद का मुकाबला करेंगे लोग। दिन भर ऊंची बिल्डिंग्स से लेकर रेलवे स्टेशन तक बम रखने की खबरें देकर लोग किस तरह का आनंद उठा रहें हैं ये बात समझ से परे हैं। जब पूरा शहर, पूरा देश एक साथ सौ पचास लोगों की मौत के ग़म से उबरने की कोशिश कर रहा है, नासूर बन चुके आतताइयों से मुकाबले की हिम्मत जुटा रहा हैं, अपनो को खो कर फिर से पैरों पर खड़ा होने का सहारा ढूंढ रहा है तब हमारे बीच के ही कुछ लोगों के लिए ये मौका मौज-मस्ती का साधन बन गया है। बात-बात पर अपने नागरिक अधिकारों की दुहाई देने वालों को नागरिक कर्तव्यों, जिम्मेदारियों का अहसास क्यों नहीं है। दिन भर जिस पुलिस को धमाकों का सिरा खोजने में सिर खपाना चाहिए वो पुलिस कुछ लोगों की हुल्लड़ई के चक्कर में पसीना बहा रही है। इसके बाद भी अतंकवादियों से निपटे की उम्मीद की जा रही है। दूसरों पर बात-बात में उंगलियां उठाने वाले अपने गिरेबान में कब झाकेंगे। या फिर बगदाद, वजीरिस्तान की तरह जीने की आदत डाल लें हम सब। आने वाली पीढ़ियां एक ऐसे माहौल के बीच पनपेंगी जहां आए दिन उनके भाई बहनों का खून होता रहेगा। बचे खुचे लोग लंगड़े लूलों की शक्ल में उन हादसों के निशान लिए घूमेंगे। यही मंशा है तो फिर अफवाहें फैलाना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य होना चाहिए। जिस शहर की एक गली से एक साथ आठ अर्थियां उठी, जिस शहर में एक साथ पचास साठ लोगों का अंतिम संस्कार करना पड़ा क्या उसमें सत्ता, सरकार, व्यवस्था, नेता, प्रशासन से विरोध दर्ज करने के लिए दस पांच हजार लोग भी शामिल नहीं हो सकते थे। डेढ़ करोड़ की आबादी वाले शहर में डेढ़ लाख लोग भी अगर श्मशान घाट पर लोगों की लाश के साथ बैठकर सत्ता प्रतिष्ठान से विरोध दर्ज कराते, गांधी समाधि तक मार्च करते तो शायद साउथ ब्लाक की बहरी अंधी स्नायुओं में खतरे की बू आती, चूलें हिलती नज़र आती। 

 

अतुल चौरसिया

1 टिप्पणी

Filed under Desh-Samaj, Uncategorized