अगर सरकार के दो मंत्री तीन महीने तक, पांचसितारा होटल के, प्रेसिडेंशियल सूट में रहते हैं तो बहुतेरी कहानियां कही–लिखी जा सकती हैं. कहानियां अखिल भारतीय परंपरा अनुसार पक्ष में भी लिखी जा सकती हैं और विपक्ष में भी. कुछ बातें तो मंत्रियों ने खुद ही लोगों के सामने कह डालीं मसलन हमारा पैसा चाहे जैसे खर्च करें किसी को क्या. विशुद्ध वणिक सिद्धांतों की कसौटी पर बात खरी है. वैसे भी कौन सा उनका पैसा किसी और के काम आता या उससे बड़ी देश सेवा हो जाती या कि सामाजिक सरोकारों में पैसा लग जाता आदि–आदि. जैसे चाहे वैसे खर्च करें उनकी मर्जी. वैसे भी देश गांधी को छोड़कर बहुत आगे निकल चुका है. आज तो ‘गंगा का बहुत पानी बह चुका है‘, ‘समय की गति बदल रही है‘, ‘जमाना कहां से कहां पहुंच चुका है आप वहीं अटके हुए हैं‘ जैसी सनातन सत्य जुगालियों की आदत लोगों को पड़ चुकी है. ऐसे में यहां कमरों की बहस में पड़ना कहां कि समझदारी है. आज जब हम महाशक्ति बनने की राह पर हैं उस दौर में इस तरह के दकियानूसी विचार भला किस लिहाज से सही हो सकते हैं. महाशक्ति की बात करते समय हमारे सामने किसका चेहरा आता है– अमेरिका का ही तो आता है न. पिछली एक सदी से अगर किसी को महाशक्ति का दर्जा मिलना चाहिए, अगर किसी ने इस पद का स्वाद चखा है (अगर धरती नामक ग्रह पर महाशक्ति जैसी किसी परम सत्ता का कहीं अस्तित्व है तो) तो वो है अमेरिका. हम अगर उसी राह पर बढ़ना चाहते हैं तो प्रतीक भी अमेरिका ही होगा. इसी प्रेरणा की धार में दोनों मत्रीजी भी बह गए. वहां के नेता मंत्रियों की ठाठ से मुंह छिपाए कब तक बरदाश करते. और तीन महीने की क्या रट लगा रखी है– सत्यानाशी, उंगलीबाज, फटे में अड़ाने वाले अखबारियों को पता न चलता तो तीन साल भी रहने में बुराई क्या थी? किसी का सुख–चैन–शांति तो इनसे देखी नहीं जाती उल्टे बात–बात में दुनिया में अशांति–अस्थिरता–आतंक की चकर–चकर किए रहेंगे. जहां तक बात–बात में गरीब, मजलूम, आम आदमी के नारे की बात है तो ये चीजें इस देश में द्रौपदी का चीर भर समझो जिसे कभी भाजपाई तो कभी कांग्रेसी और कभी–कभार दांव लग जाए तो तीसरे मोर्चे के दुशासन मौका और वक्त की नजाकत के साथ जम कर हरते रहते हैं. बेचारी द्रौपदी पांच हजार साल पहले द्वापरयुग में भी हरी गई और आज पांच हजार साल बाद कलियुग में भी उसकी नियति जस की तस है. भला हो गोकुल नंदन का जिन्होंने उस वक्त भी अस्मिता बचाई और आज भी किसी न किसी रूप में बचाते चल रहे हैं. ‘इस देश का भगवान ही मालिक है‘ की तोतारंटत इसी परम श्रद्धा की परिणति है जिसे हर भारतीय परमब्रह्म की अवस्था में जब तब, चलते–फिरते दे मारता है.
जिस सवा अरब की आबादी में दो चार फीसदी लोगों के लिए भी पांच सितारा सुविधाओं में रहने की औकात न हो उसके जन प्रतिनिधि इस तरह का नंग प्रदर्शन कैसे कर सकते हैं? बात आदर्श और नैतिकता की हो रही है याद रखिएगा. पर काहें कि नैतिकता और कैसा आदर्श जहां मुख्यमंत्री जेल जाने की स्थिति में भी कुर्सी पर जमें रहने की कोई राह नहीं छोड़ता, जहां जीतेजी अपनी ही मूर्तियों की लड़ी बना कर पूरे शहर को पाट देने से भी आत्मा शर्मिंदा नहीं होती, 10 हजार साड़ियों और तीन हजार जोड़ी चप्पलों वाली नेता जिस देश में विराजमान हो, जिस देश का गृहमंत्री बम धमाकों के तीन घंटे के भीतर तीन जोड़ी कपड़े बदल डालता हो और जवाब में कहता हो मुझे मैडम का आशीर्वाद है, जिस देश में हजार–दो हजार हत्याओं के बाद भी नेता मुख्यमंत्री बना रह सकता हो वहां नैतिकता–फैतिकता का भाषण ज्यादा मत झाड़ा करो. और एक बात का ध्यान रखना बात–बात में गांधी–शास्त्री का उदाहरण देने की जरूरत नहीं है. उन्हें जाने कब का उन्हीं के लोगों ने किनारे लगा दिया है. ये नैतिकता कहीं किसी अवागाद्रो की किताबी परिभाषा में तो लिखी नहीं गई है कि इसे अंतिम सत्य मान लिया जाए. मानने की बात है, मानो तो देव नहीं पत्थर. गांधी–शास्त्री मानते थे नेहरू नहीं मानते थे. हम भी नहीं मानते…
अतुल चौरसिया
हाय गांधी! आप लन्दन जाते थे तो ‘स्लम’ में क्यों ठहरते थे? क्या लाभ हुआ ये सब करने से?