अगर किसी ने आज (22 नवंबर) नई दुनिया अखबार पढ़ा हो तो सबने पहले पन्ने की लीड खबर जरूर देखी होगी. इस खबर का मजमून कुछ यूं है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रबर स्टैंप नहीं है. यह खबर कम, दो संपादकों की प्रधानमंत्री की महिमा में गाया गुणगान ज्यादा है. इसलिए मैं इसे लेख कहूंगा. इस लेख में क्रमश: कुछ फैसलों, कुछ नियुक्तियों का जिक्र करके ये साबित करने की कोशिश की गई है कि मनमोहन सिंह पीएमओ में महज रबर स्टैंप नहीं है, और भी बहुत कुछ हैं. नई दुनिया के दो शीर्ष संपादकों ने जिस तरह से यह लेख लिखा है उससे उनकी मौजूदा कांग्रेस सरकार के प्रति स्वामिभक्ति ज्यादा, एक निष्पक्ष पत्रकार का नजरिया कम दिखता है.
आज की तारीख में अगर कोई गंगा में गले तक डूब कर भी कसम खाए कि मनमोहन सिंह अपने फैसले स्वयं लेते हैं और दस जनपथ को दाहिने रखते हैं तो यह बात शायद ही किसी के गले उतरे. पर किन तथ्यों के आधार पर नई दुनिया ने इस महती कार्य का बीड़ा उठाया है समझ से परे है और संदेह भी पैदा करता है. इस लेख के पीछे मकसद की बू इसलिए भी आती है कि इस समय जब प्रधानमंत्री और उनकी सरकार चारो तरफ से संकटापन्न स्थिति में हैं तब उनकी जयजयकार वाला लेख लिखने का क्या अर्थ है यानी टाइमिंग का सवाल है.
लेख में दोनों वरिष्ठ पत्रकारों ने कुछ फैसलों का जिक्र किया है जिसमें प्रधानमंत्री की भूमिका होने और उनके दस्तखत की बात होने का जिक्र है. यहां एक बड़ी बात है कि इन वाकयों का जिक्र आखिर किस तरह से ये साबित करता है उस फैसले में दस जनपथ की भूमिका नहीं थी. और दस्तखत को क्या माना जाय, कोई फैसला सोनिया करें या राहुल दस्तखत तो संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का ही होगा तो इस प्रकाय तो यह बात स्वयंसिद्ध है कि प्रधानमंत्री सर्वशक्तिमान हैं फिर नई दुनिया का सिर्टिफिकेट क्यूं? अगर नहीं तो क्या दोनों संपादक तब यह मानेंगे कि प्रधानमंत्री रबर स्टैंप है जब उनकी बजाय दस जनपथ से ही कागजों पर दस्तखत होगा. यानी एक पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही जब खत्म हो जाएगी.
वैसे भी हवा के रुख के साथ जाना नई दुनिया की पहचान सी बन गई है. हंस के सालाना सम्मेलन में इन्हीं आलोकजी ने माओवादियों और सरकार के बीच बिचवई कर रहे स्वामी अग्निवेश की यह कहकर आलोचना कर डाली कि आपको क्या जरूरत थी सरकार और माओवादियों के बीच पड़ने की. क्या आप सरकार को नहीं जानते हैं. गौरतलब है कि सारा मामला माओवादी नेता आजाद और एक पत्रकार हेमदत्त पांडे की सुरक्षाबलों द्वारा हत्या का था. मान लिया कि स्वामी अग्निवेश सरकार के झांसे में आ गए थे, उन्हें इस बात का अनुभव नहीं था कि उनका इस्तेमाल करके सुरक्षाबल इस तरह से दो लोगों की हत्या कर देंगे. पर आलोकजी क्या भूमिका बनती थी. बजाय उन्होंने इस सरकारी कुटिल नीति की आलोचना अपने अखबार में करने के, उन्होंने उल्टे नेक नीयत से इस काम में कूदे आदमी की ही लानत मलानत कर डाली. चरणचंपन की इंतेहा हो गई. अगर आपको पता था कि सरकारें इतनी ही कुटिल होती है तो आपने पहले और बाद में सरकार की इस भूमिका को लोगों के सामने क्यों नहीं उजागर किया वह भी तब जब आपके पास इतना बडा माध्यम था?
मनमोहन सिंह रबर स्टैंप हैं या नहीं है, किसी अखबार से आप क्या उम्मीद करते है॒. वह तटस्थ रहते हुए इस मुद्दे का विश्लेषण करेगा खुद निर्णय देने की बजाय मामले के हर पहलू का तर्कसंगत मूल्यांकन आपके सामने रखेगा. पर यहां तो देश के दो आला संपादक ही मुद्दई, गवाह, जज, सब के सब बन बैठे.
ऊंचे पहुंच कर नीचे की चीजें छोटी दिखने लगती है. बड़ी लग्जरी कारों के काले शीशे के पार की दुनिया धुंधली दिखती है. आज के कलमकार इन्हीं दृष्टिदोषों के शिकार हैं. सत्ता की देवी अपनी स्याही के प्रवाह से जो चाहे लिखवा लेती है. पर प्रवक्ता ही बनना है तो उसके लिए दो रूपए की सदस्यता फीस चुकाकर लाल, हरी, केसरिया या फिर तिरंगी टोपी पहन कर करना ठीक होगा, नैतिक रूप से भी और अपनी पेशेवर प्रतिबद्धता के साथ भी, पत्रकारिता के नाम पर नहीं…
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कांग्रेस के एडिशनल प्रवक्ता आलोक मेहता और विनोद अग्निहोत्री
हाथ बांधकर नदी पार करने की कवायद
साल
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राजदीप सरदेसाई : “ख़बर हर कीमत पर” !
नवंबर 2007 की वो शाम बार-बार याद आ रही है। तरुण(तेजपाल) हमारे छोटे से एडिटोरियल हॉल में तहलका की पूरी संपादकीय टीम को संबोधित कर रहे थे। उनके एक एक शब्द आज ज़ेहन में तैर जाते हैं। उन्होंने कहा, “तरुन रहे न रहे तहलका उनकी आखिरी सांस तक जनहित की पत्रकारिता की आवाज़ को बुलंद करता रहेगा। व्यक्तिगत लोग आते जाते रहेंगे पर तहलका एक मिशन है जिसका मकसद है गरीबों मजलूमों की आवाज़ सत्ता के शीर्ष पर काबिज लोगों के कानों में डालना, उनसे जवाब मांगना। आज एक बार फिर से तहलका अपने उसी मिशन का अगल क़दम बढ़ाने जा रहा है। हो सकता है आने वाला वाला समय परेशानियां, मुसीबतें लेकर आए पर इसका सामना हमें करना ही होगा। ताकि जो सच्चाई हमारे सामने आई है वो जनता को पता चले और इतिहास हमें गुनाहगार न समझे।”
ये वो दिन था जब तहलका ने गुजरात दंगों के आरोपियों की मुंहजुबानी परत दर परत सारी सच्चाइयां सामने रखी थी। पत्रकारिता के इतिहास की शायद गिनी चुनी ख़बरों में इसको स्थान दिया जाएगा।
फिर मेरे दिमाग में 2003 अप्रैल की वो दोपहरी घूम जाती है जब हम भागे-भागे अर्चना काम्पलेक्स स्थित एनडीटीवी के ऑफिस पहुंचे थे। वजह थी कि राजदीप सरदेसाई ने हमें मिलने का समय दिया था। एक डॉक्युमेंट्री के सिलसिले में जब हम उनसे मिलने पहुंचे थे तो हमारे दिमाग में 2002 गुजरात दंगों के दौरान हीरो बनकर उभरे राजदीप की छवि हिलोरे मार रही थी। मन में उत्साह इतना था कि मित्र संजय ने जो पहली बात उनसे कही वो हम सबकी मनोदशा का प्रतिनिधित्व करती थी। “सर हम सबकी बस यही इच्छा हैं कि एक दिन हम राजदीप सरदेसाई बनें।”
इस सारे आगे-पीछे का जिक्र इसलिए कर रहा हूं क्योंकि भारत की लोकसभा में वोट के बदले नोट का जो शर्मनाक मंजर पूरी दुनिया ने देखा है उसके तार कहीं न कहीं देश के मान्यता प्राप्त टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई भी जुड़ते हैं। और इससे उनकी विश्वसनीयता, उनकी प्रतिष्ठा पर भयंकर सवाल खड़े हो रहे हैं।
आज पांच साल बाद अपनी उस दशा पर, उस सोच, उस विचार पर पुनर्विचार करना पड़ रहा है। क्या जिस राजदीप जैसा हम बनने की सोच रहे थे वो वास्तव में अनुसरण के लायक था? या फिर हम ग़लत सोच रहे थे? राजदीप भी उस भीड़ का हिस्सा मात्र ही थे जिनके लिए पत्रकारिता की परिभाषा जनता का हित नहीं बल्कि व्यावसायिक और कॉर्पोरेट हितों की रक्षा करना भर है।
राजदीप जिन्होंने गुजरात की आग की परवाह नहीं करते हुए महीनों दंगो में झुलस रही गलियों कूचों की खाक छानी थी वो इतने बड़े नेता कम दलाल को रंगे हाथ पकड़ने के बाद हिम्मत खो बैठे। उस पर बचाव में राजदीप के जो तर्क हैं वो कितने लचर हैं इसका अंदाज़ा आप खुद लगा सकते हैं। उनका कहना है कि संसदीय विशेषाधिकारों का हनन न होने पाए इस वजह से नोट फॉर वोट के टेप प्रसारित नहीं किए गए बल्कि लोकसभा अध्यक्ष को दे दिए गए।
ये तर्क कितने खोखले हैं, जिस संसद के 11 सदस्यों का सवाल के बदले नोट लेने की ख़बर मीडिया प्रसारित कर चुका है, जिस संसद के 7 सदस्यों को सांसद निधि से पैसा खाने की रंगे हाथ तस्वीरें मीडिया प्रसारित कर चुका है उसी संसद के एक सदस्य द्वारा अपने घर में करोड़ो रूपए के नगद लेन देन के विजुअल दिखाने में राजदीप को विशेषाधिकार नजर आने लगे। लोकसभा से दूर अपने घर में कैसा विशेषाधिकार और वो भी जनहित से ऊपर कैसा विशेषाधिकार?
बुधवार को सीएनएन-आईबीएन ने इस पर अपनी सफाई में एक और तर्क दिया है कि वो स्टिंग के टेप का क्रॉस चेक किए बिना प्रसारण नहीं कर सकते थे। और उसी स्पष्टीकरण में आईबीएन ने ये भी कहा है कि उनकी खोजी टीम एक हफ्ते से इस ख़बर पर लगी हुई थी। तो फिर एक हफ्ते के दौरान चैनल ने टेप की क्रॉस चेकिंग क्यों नहीं की औऱ उससे भी ऊपर लाख टके का सवाल ये है कि अपने ही टेप पर चैनल को भरोसा नहीं था जो टेप के क्रॉस चेकिंग की दुहाई दी जा रही है।
एक तर्क और दिया है चैनल ने। बिना स्टिंग पूरा किए हम उसका प्रसारण नहीं कर सकते थे। विश्वासमत का खेल खत्म होने के बाद वो जनता को क्या दिखाते जब सारे कारनामें का दुष्परिणाम-सुपरिणाम सामने आ जाता। ख़बर की कीमत ही तभी थी जब वो उसे समय रहते देश के सामने ले आते। आखिर उन्हीं का हिंदी चैनल ये दावा करता है ना कि “ख़बर हर कीमत पर”।
फिर मीडिया जनहित की बात कैसे कर सकता है जब उसके प्रतिनिधियों की काली करतूतें सामने लाने की कुव्बत ही नहीं है। जिस तरह से गुणा-भाग करके राजदीप ने टेप न दिखाने का फैसला किया उससे तो शुद्ध रूप से व्यावसायिक हित लाभ की वही सड़ांध आ रही है जिसके लिए बहुत से मीडिया संस्थान और मीडियाकर्मी कुख्यात हैं। जिस समय बीजेपी के तीन सांसद लोकसभा में नोटों की गड्डियां उछाल रहे थे ठीक उसी वक्त राजदीप अपने चैनल सीएनएन-आईबीएन पर नोट वाली घटना और विश्वासमत के अंतर्संबंधों का लाइव विश्लेषण कर रहे थे। उनके चेहरे पर उड़ रही हवाइयां साफ साफ चुगली कर रही थी कि सत्ताधारियों से मोल ली गई दुश्मनी के नफे नुकसान ने उन्हें अंदर ही अंदर कितना बेचैन कर रखा है।
पूरे मीडिया समुदाय में एक संदेश ये भी गया कि राजदीप वो साहस वो हिम्मत नहीं दिखा पाए जिसकी उम्मीद उनके जैसे पत्रकारों से लोग करते थे। मेरा व्यक्तिगत रूप से ये भी मानना है कि इस मामले में तरुण जैसा जज्बा, नैतिक साहस और हिम्मत दिखाने की जरूरत थी पर राजदीप के लिए शायद व्यावसायिक हित-लाभ ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए।
चौतरफा हो रही निंदा से बचने के लिए भले ही उन्होंने अपने बचाव के कुछ तर्क गढ़ लिए हों पर ये तर्क कुतर्क ही हो सकते हैं। एक बात जो सीधी सपाट है वो ये कि इस मामले में राजदीप में उस हिम्मत, उस इच्छाशक्ति का सर्वथा अभाव दिखा जिसकी उम्मीद एक भ्रष्ट शासन तंत्र का मुकाबला करने के लिए ईमानदार मीडिया तंत्र से की जाती है।
इसी मीडिया समुदाय में जोड़ तोड़, दलाली करके राज्यसभा के रास्ते सत्ता की मलाई काटने वालों की भी कमी नहीं है। तो क्या राजदीप भी इसी तरह के किसी लोभ के शिकार हो गए। तो फिर उनमें और बाकियों में अंतर क्या रह गया। जिस राजदीप से एनडीटीवी के जमाने में नेता बात करने से पहले चार बार तैयारी करते थे वो राजदीप सीएनएन-आईबीएन के जमाने में उसकी परछाई भी नहीं लगता ऐसा क्यों है। क्या अतिशय महत्वाकांक्षाओं ने राजदीप को लील लिया। निश्चित रूप से जहां लाखो-करोड़ो रूपए दांव पर लगे हों वहां बहुत सी चीजों को तिलांजलि देनी पड़ती है। विनोद दुआ का एक इंटरव्यू याद आ रहा है जिसे वरिष्ठ पत्रकार जफ़र आगा ले रहे थे। अपना चैनल खोलने के सवाल पर विनोद दुआ ने कहा कि मुझे एक शर्ट पहननी है अब इसके दो रास्ते हैं, पहला कि मैं बाज़ार में जाऊं दुकानदार से कपड़ा खरीदूं उसे पैसा चुकाऊं और साथ में गारंटी भी हासिल कर लूं कि कुछ गड़बड़ी होगी तो तुम्हारे सिर पर ला पटकूंगा। दूसरा तरीका है कि इसके लिए मैं एक कपड़ा बनाने की फैक्ट्री लगाऊं, उसके लाइसेंस की व्यवस्था करूं, लोगों को घूस खिलाऊं, फैक्ट्री चलाने के लिए समझौते करूं और फिर कपड़ा पहनूं।
ये जिक्र यहां इसलिए कर रहा हूं क्योंकि राजदीप ने कपड़ा पहनने के लिए यहां दूसरा रास्ता चुना। तो शायद समझौतो में पुराना राजदीप कहीं खो गया।
मीडिया का पहला धर्म शायद यही है कि जनता के हित में क्या है इसकी बारीक परख होनी चाहिए। जनता के प्रतिनिधि अगर खुलेआम उनके वोट की खिल्लियां उड़ा रहे थे, उन्हें संसद में पहुंचाने के बदले सांसद करोड़ो रूपए में अपनी मर्यादा नीलाम कर रहे थे तो फिर इसमें संसदीय विशेषाधिकार का सवाल कहां से पैदा हो जाता है। जनता पहले है या विशेषाधिकार।
उनके पास क्या था क्या नहीं ये तो वही जाने पर अगर उनके पास लोकसभा स्पीकर को दिखाने के लिए कुछ था तो उसे देखने का हक़ देश की जनता को भी था। भले ही वो इसे डिसक्लेमर के साथ चलाते। उसमें कुछ स्पष्ट था, नहीं था, वैध था, अवैध था इसका फैसला फॉरेंसिक प्रयोगशालाएं करती। “गुप्त सूत्रों से मिली जानकारी”, “नाम न छापने की शर्त” जैसे जुमलों के साथ हज़ारों खबरों को वैधानिकता प्रदान करने वाला मीडिया एक टेप को इस तरह से छुपा कर न तो अपने पेशे से न्याय कर रहा है न ही देश की जनता से।
अगर ऑपरेशन वेस्ट एंड, गुजरात का सच जैसी सच्चाईयों का खुलासा करने की हिम्मत नहीं है तो फिर प्रेस कॉन्फ्रेंस वाली पत्रकारिता करते रहिए किसी का भला हो न हो आपकी कॉर्पोरेट कंपनी खूब फलेगी फूलेगी।
अतुल चौरसिया
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पूत के पांव गर्भ में…
जब बात अपनी गिरेबान में झांकने की हो तो बेशर्मी की चादर ओढ़ना कोई इनसे सीखे। दिल्ली से दरभंगा तक समाज सुधार की दुहाई देनी हो, नैतिककता के हर तकाजे की चिंता में मरे जा रहे टीवी मीडिया की बात कर रहा हूं। हालांकि मीडिया पर लिखने पर आज ये आरोप लगाना आसान हो गया है कि ये कुंठा निकालने का जरिया है। पर कहने वाले कहते हैं लिखने वाले लिखते हैं।
आज से 50 साल बाद जब पत्रकारिता के स्कूलों में टीवी मीडिया का इतिहास पढ़ाया जाएगा तो एक हल्लेदार बात जरूर पड़ाई जाएगी। ख़बरिया चैनलों के शुरुआती दिनों में एक ऐसा चैनल हुआ करता था जिसे दो महीनों के लिए प्रसारण से प्रतिबंधित कर दिया गया था। इसकी वजह थी एक रिपोर्टर की आपराधिक महत्वाकांक्षा और एक मीडिया हाउस द्वारा सतही, ग़ैर जिम्मेदार तरीके से प्रसारित की गई एक रिपोर्ट। कर्ता धर्ता थे प्रकाश सिंह नाम के एक महाशय जिन्हें पत्रकारिता के ऊंचे मानको न सही उसे शर्मसार करने के लिए जरूर याद किया जाएगा।
अपना तो अपना ही होता है। तो फिर अपने लाल को टीवी वाले ऐसे कैसे छोड़ देते। पुरानी कहावत है उंगली में जख़्म हो तो उंगली काट कर नहीं निकाल देते। इसी कहावत को गांठ मार लिया है टीवी वालों ने। बिल्कुल नेताओं की तरह बीती ताहि बिसार के आगे की सुधि लेहु।
गुड़िया की सारे देश के सामने पंचायत लगवाने वाला मीडिया, आरुषी हत्या के मामले में 8 दिनों में 88 संभावनाएं पेश कर चुका टीवी मीडिया पत्रकारिता के इतिहास के कुछेक दुर्लभतम कारनामों में से एक को अंजाम देने वाले प्रकाश सिंह को साल भर से भी कम समय में क्षमादान दे चुका है।
जब मुंशी का डंडा सूचना प्रसारण मंत्रालय से निकलता है तो सब के सब एक सुर से घिंघियाते हैं– ये प्रेस की आज़ादी पर हमला है, अपने ऊपर रोक-रपट मीडिया खुद ही लगाएगा। किसी सरकारी फरमान की जरूरत नहीं है। क्या दिखेगा, क्या लिखेगा और क्या नहीं इसका फैसला मीडिया अपने आप करेगा तो लोकतंत्र, राजनीति, समाज सब सुरक्षित रहेगा।
ऊपर से ये चिकनी बातें कितनी अच्छी लगती है। पर दिखता क्या है– ख़बर के नाम भूत प्रेत, नाग नागिनों से पीछा छूटा तो अब महादेव शंकर के दर्शन से साईं बाबा और तो और रावण के विमानपत्तन तक पहुंचने का दम सब के सब कर रहे हैं। इसी रेलमपेल में टीआरपी देवता प्रसन्न हैं और चैनल एक नंबरी-दो नंबरी की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसी को सेल्फ रेगुलेशन कहते हैं। खबरों पर आत्म नियंत्रण का ये कैसा चेहरा है? सब छुट्टा सांड़ों की तरह ख़बरों के नाम पर पत्रकारिता को रौंद रहे हैं।
बुजुर्गों ने कहा था कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं यहां तो गर्भ में ही दिख रहे हैं। वॉयस ऑफ इंडिया नाम का नया ख़बरिया चैलन भीड़ में शामिल होने की कशमकश में लगा है। चैनल अभी प्रसारित भी नहीं हुआ है इन्होंने प्रकाश सिंह महोदय को बतौर अपना कर्मचारी नियुक्त किया है। ख़बर है ये त्रिवेणी वाले उनसे फिर से पत्रकारिता करवाएंगे। यही है मीडिया का सेल्फ रेगुलेशन। इतनी मोटी सी बात भी घुटनाग्रस्त दिमाग में नहीं आती तो कोई क्या करे?
अतुल चौरसिया।
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