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पिंक चड्ढी अभियान से जुड़े-बदलाव की शुरुआत करें

sriramsenaअगर हर दिन की लट्ठमार से ऊबे हुए हैं, जबर्दस्ती थोपे जा रहे संस्कारों से घुटन महसूस कर रहे हैं, कानून की परवाह न करने वालों से परेशान हैं, अपनी मनमानी करके खुद को सबका भाग्यविधाता समझने वालों से परेशान हैं, स्त्री को माता का दर्जा देने वाले उन्हें सरेआम पीटते हैं, अगर इससे परेशान हैं, गुंडई को अपना पौरुष समझने वालों की नादानी से पीड़ित हैं, तालिबानीकरण के दुष्प्रभावों से चिंतित हैं, मध्यकालीन पुरापाषाण काल में देश को धकेलने पर उतारू लोगों से त्रस्त हैं, दूसरों की आजादी का सम्मान न करने वालों से परेशान हैं, तो फिर एक आम हिंदुस्तानी के अभियान से जुड़िए और एक ऐसा आंदोलन खड़ा कीजिए कि ऐसा करने वाला दोबारा ऐसा करने की शर्मनाक जुर्रत ही न कर सके. अपना आंदोलन खड़ा कीजिए, निशा के अभियान में एक और हाथ जोड़िए. शायद नए भारत की शुरुआत यहीं से हो. पिंक चड्ढी अभियान इसी तरह कई अर्थों में अनोखा है. अभियान से जुड़ने संबंधी सारी जानकारी के लिए नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करें या पते पर भेजें.

http://www.thepinkchaddicampaign.blogspot.com/

Pramod Muthali,
Sri Rama Sene Office # 11, Behind new bus stand,
Gokhul road, Lakshmi park, Hubli – Karnataka

Contact persons:
Nithin (9886081269)
Nisha ( 9811893733)

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वही परम पद पाएगा

2006091606061201बीजेपी ये दिखाने की कोशिश में काफी शांत है कि कल्याण के जाने से उसे कोई फर्क नहीं पड़ा है. सियासत की अपनी मजबूरियां हैं. कल्याण को भी इस बात का अहसास है. पहले भी एक बार पार्टी से नाता तोड़ कर अपनी दिग्गजई की अंदाजा लगा चुके हैं. पर बाद में लौट के उसी कुनबे में आए थे. अब एक बार फिर से वही राग छेड़ा है. दोनों की अपनी अपनी मजबूरियां हैं पर कल्याण भी ज्यादा लंबे पैंतरे न चल कर कहीं न कहीं मैान मनौव्वल की संभावना को जिंदा रखे हुए हैं. मसलन वो न तो किसी पार्टी में जाएंगे न ही कोई पार्टी बनाएंगे. अपनी जिद पर अड़कर अपनी खास सहयोगी कुसुम राय को राज्यसाभा भेज चुके हैं खुद भी एटा से लोकसभा का टिकट झोली में डाल चुके थे. पर पुत्रमोह ने सरा टंटा खड़ा कर दिया. अशोक प्रधान को बुलंदशहर की सीट देना उन्हें नागवार गुजरा. अब कल के आदमी को अपने सामने तवज्जो देते देखकर कल्याण बर्दाश्त भी तो नहीं कर सकते थे.
हालांकि जो मामला ऊपर से पुत्रमोह लगता है अंदर से बात कहीं ज्यादा गहरी है. दरअसल हिंदुस्तानी लोकतंत्र के साथ ही पार्टी में भी अपनी हैसियत अपने समर्थक विधायको सांसदों की संख्या तय करती है. इस लिहाज से एक समय उत्तर प्रदेश भाजपा की तकदीर का मालिक रह चुका 76 वर्षीय नेता आज पार्टी के भीतर अपनी जमीन तलाश रहा था. पर मंदिर आंदोलन का सारा पानी कब का बह चुका है. उनके सामने सियासत में कूदे राजनाथ आज पार्टी के अध्यक्ष हैं. तो फिर चारा क्या था? अंदर ही अंदर दबाव बना रहे थे. पर पार्टी ने भी इस दफा ज्यादा न झुकने का मन लगता है बना लिया है.
हालांकि कल्याण फिलहाल राज्य में कोई बड़ी ताकत भले ही न हों मगर एक इलाके में अभी भी वो काफी अंतर पैदा कर सकते हैं. यानी बचपन में बच्चों के बीच होने वाली लड़ाई ‘न खेलूंगा न खेलने दूंगा पर खेल बिगाड़ुंगा’ की भूमिका कल्याण बखूबी निभा सकते हैं. ये चिंता बीजेपी को अंदर ही अंदर परेशान कर रही होगी भले ही ऊपर से वो इसे दिखा न रहे हों. अजित सिंह की आरएलडी से समझौता करके पार्टी इस नुकसान की भरपाई की कोशिश कर सकती है. पर इस राह में भी रोड़े तमाम हैं. मसलन अजित सिंह की अपनी विश्वसनीयता का पैमाना बेहद निचले पायदान पर है और कल्याण की नाराजगी की एक वजह ये अवसरवादी गठबंधन भी माना जा रहा है.
भाजपा द्वारा कल्याण को नजरअंदाज करने की एक वजह और भी ज्यादा स्पष्ट है, पार्टी की हालत प्रदेश में पहले से ही खस्ताहाल है. पिछले लोकसभा चुनाव में उसे मात्र 10 सीटें मिली थी. इस लिहाज भाजपा की स्थित उत्तर प्रदेश में कम से कम ऐसी हो गई है कि उसके पास खोने को कुछ ज्यादा है नहीं. इसलिए किसी लंगड़े घोड़े की मान-मनौव्वल में अपनी ऊर्जा बर्बाद करने की बजाए आरएलडी टाइप खच्चरों को पटाना भाजपा को ज्यादा फायदेमंद लग रहा होगा.
कल्याण सिंह ने किसी पार्टी में न जाने का या फिर कोई पार्टी न बनाने का फैसला करके कहीं न कहीं अपनी इज्जत भी खुद ही बचाई है. इसकी एक वजह तो उनका पिछला अनुभव है जो हर लिहाज से उन्हें मंहगा पड़ चुका है हालांकि वो उतना ही महंगा भाजपा को भी पड़ा था. प्रदेश में भाजपा और कल्याण की राजनीतिक हैसियत का अंदाजा होने की वजह से मुलायम सिंह ने भी 2000 की तरह एकदम से कल्याण सिंह को गले लगाने की भूल नहीं की है. दूसरे जिस तरह से कल्याण ने उन्हें बीच मंझधार में छोड़ कर दोबारा से भाजपा का दामन थामा था उस दर्द की कसक भी कहीं न कहीं मुलायम को रही होगी. पर कहते हैं न कि सियासत में दोस्ती या दुश्मनी स्थाई नहीं होती. तो मुलायम ने भी थोड़ा सा चारा तो फेंका ही है ताकि भविष्य के लिए सारे दरवाजे एकसाथ बंद न हो जाए. उन्होंने कल्याण के पुत्र राजवीर को लोकसभा टिकट इच्छा के आधार पर देने की घोषणा कर दी है.
एक बार फिर से लोकसभा की नई पारी की संभावना में संसद के पिछवाड़े सियासती पहलवानों की आपसी गुत्थम-गुत्था तेज हो गई है. आखिर जो जितनी ज्यादा मजबूती से आज ताल ठोंक लेगा वहीं अगले पांच सालों तक परम पद पाएगा.
आतुल चौरसिया

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राजनीति का दोगलापन या दोगलेपन की राजनीति

ये बात समझने की कोशिश में सिर खपा कर भी कुछ ख़ास समझ नहीं आया। लिहाजा थके हारे ये निष्कर्ष निकाला कि राजनीति महाठगिन हम जानी। कब कहां ये अपना रंग किस माहौल के हिसाब से ढाल लेगी किसी को ख़बर नहीं लगेगी।
जिस दिन जामिया नगर के एल-18 में पुलिस ने एनकाउंटर किया था और अपने एक सिपाही एमसी शर्मा को खोया था उस दिन की राजनीति की मांग थी कि सियासतदान उनके घर जाएं, उनके परिवार के साथ संवेदना जताएं हो सके तो कुछ रुपया पैसा दान करें। आखिर जिस आतंकवाद की चोट से झुंझला झुंझला कर देशवासी दो चार हो रहे थे, उसका सफाया करते समय अगर कोई मारा गया तो उसे तो नायक का दर्जा मिलना ही था।
बस सियासत इस बात का जोड़-घटाना कर रही थी कि इसमें वोट का कितना गणित है। सारी गुणा गणित यही कहती है कि इस देश में शहीद का दर्जा अमूमन सभी नायकों से ऊंचा होता है। लिहाजा उनके पक्ष में खड़ा होना सियासतदानों के लिए फायदे का ही सौदा है। हुआ भी वहीं। तमाम लोगों में अपने अमर सिंह भी शामिल थे। उन्होंने दस लाख रूपए का चेक भी शहीद के परिजनों को दिया था। ये बात अलग है कि चेक भुनाने लायक ही नहीं पाया गया। पर कहते हैं न कि सियासत समय का मिजाज देखकर रंग बदल लेती है। यहां भी वैसा ही हुआ। अपने जामिया के उप कुलपति मुशीरुल साहब ने पहले ही अपना रुख साफ कर दिया था कि वो अभियुक्तों को क़ानूनी सहायता मुहैया करवाने जा रहे हैं। संवैधानिक नज़रिए से और उनकी जिम्मेदारियों को देखते हुए इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। पर नैतिकता के तकाजे में ऐसी तमाम बातें खड़ी होती हैं जो उनके रुख पर सवाल उठाती हैं। 

अगर कल को आरोपी दोषी साबित हो जाते हैं तो मुशीरुल साहब क्या सफाई देंगे। उससे भी अहम बात जो मुशीरुल साहब ने कही कि जामिया को बदनाम किया जा रहा है यहां कोई भी कट्टरपंथी नहीं है और मुझे अपनी उदारता और देशभक्ति का प्रमाण देने की जरूरत नहीं है। पर क्या ये सच्चाई नहीं है कि सलमान रश्दी की 

सैटनिक वर्सेज़ को लेकर उसी जामिया में तीन सालों तक उनका घुसना मुहाल किया जा चुका है। क्या करके वो दोबारा से जामिया में प्रवेश पा सके ये तो वही जानें। अपना सवाल ये है कि जब उन्हें खुद इस तरह के कट्टरपंथ का सामना करना पड़ चुका है तो फिर वो कैसे पूरे जामिया के पाक-साफ होने की जिम्मेदारी अपने माथे ले सकते हैं? आखिर उन्हें जामिया से धकियाने वाले कोई उदारपंथी, देशभक्त मुसलमान तो नहीं रहे होंगे। तो फिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि दो चार लोगो इस तरह की उल्टी सीधी गतिविधियों में लिप्त हों असमाजिकता का प्रभाव तो देश के अमूमन हर विश्वविद्यालय में ही है। इलाहाबाद से लेकर बनारस और अलीगढ़ तक छात्रों के बीच खूनी संघर्षों की एक लंबी चौड़ी दास्तान सुनाई जा सकती है। तो इसका ये मतलब तो नहीं कि हर जगह के वाइस चांसलर अपराधियों के पक्ष में खुलेआम बयान देना शुरू कर दें, उन्हें क़ानूनी संरक्षण की दुहाई देना शुरू कर दें।अपना मकसद यहां मुशीरुल साहब को ग़लत ठहराना नहीं है। हो सकता है उन्होंने काफी साफ मन से ऐसा करने का फैसला किया हो। पर ज्यादा संभावना इस बात की भी है कि शायद उन्हें जामिया में मौजूद प्रभावी कट्टरपंथी समूहों के सामने खुद के टिके रहने का आधार खोजेना ज्यादा जरूरी लगा हो। वरना शायद एक बार फिर से उनका स्पष्ट उदार रवैया उन्हें सैटनिक वर्सेज़ की हालत में पहुंचा सकता था। इसकी संभावना कहीं ज्यादा थी।
इन दिनों अमर सिंह भी खूब बोलने लगे हैं। वरना तो यूपी में माया और दिल्ली में यूपीए के आने के बाद कोई उन्हें दो के भाव नहीं पूछ रहा था। बहरहाल दलाली की महिमा अपरंपार। अमर सिंह भी सांत्वना देने वालों में शामिल थे। अब राजनीति का दोगलापन देखिए एक तरफ वो शहीद के परिजनों को दस लाख का चेक देते हैं। और बमुश्किल बीस दिन के भीतर ही एनकाउंटर को फर्जी करार देने में उन्हें कोई शर्म नही आती। अब इनसे भला बिना पेंदी का लोटा नहीं है जो पकड़े रहने पर कम से कम एक लोटा पानी तो सहेज ही सकता है। मुस्लिम वोटो की गाड़ी पर अपनी सियासत चलानें में क्या बुराई है। खूब करिए। पर शहर-गांव की राजनीति और देशव्यापी मुद्दों में भी अगर आपको हित-लाभ का अलगाव करने की तमीज नहीं है तो खुद को राजनेता कहने में खुद ही शर्म आनी चाहिए। किस मुंह से चेक दिया और फिर किस मुंह से कह रहे हैं कि शर्मा अपनी पोस्टिंग के लिए भागा-भागा फिर रहा था।
आपने भी धमाकों के आरोपियों को क़ानूनी सहायता अपने पैसे पर मुहैया करवाने का ऐलान किया है। यहां मामला मुशीरुल साहब से थोड़ा अलग है, इसलिए इसकी चीरफाड़ जरूरी है। आजतक किसी राजनीतिक पार्टी ने कम से कम देश के खिलाफ की गई किसी साजिश के आरोपियों को इस तरह से खुलेआम सहायता देने का ऐलान नहीं किया है। तो दिनों दिन पतित हो रही भारतीय राजनीति का ये एक नया चेहरा दिख रहा है। अमर सिंह का मामला इसलिए भी अलग है क्योंकि उन्होंने क़ानूनी सहायता देने का तो ऐलान कर दिया पर आरोप सिद्ध होने की सूरत में वो क्या करेंगे इसकी घोषणा भी उन्हें करनी होगी, एकतरफा चाल से कमा नहीं चलेगा। आखिर आप खुद को सार्वजनिक जीवन में होने का दावा करते हैं। तो फिर देश-समाज के हित से ऊपर अगर संगीन आरोपों के आरोपियों के हित हैं आपकी नज़र में, तो फिर आरोप साबित होने की सूरत में आपको ये ऐलान भी करना चाहिए था कि मैंने एक आतंकी का बचाव किया इसके लिए मैं शर्मिंदा हूं, सियासत से सन्यास ले रहा हूं। दोनों हाथों में लड्डू लेकर दोगलेपन की राजनीति को जनता भी समझती है। जिस वोट के लिए ये सारी कसरत कर रहे हैं उसका सच समझ में आता है जनता को। इस देश की लोकतांत्रिक परंपरा बहुत निराली है। जब एनडीए हवा में उड़ रही थी तो बिना इशारा किए जनता ने जमीन पर ला पटका था। और आपसे ज्यादा इसकी चोट भला किसे महसूस होगी जिसे साल भर पहले जनता ने यूपी में मुंह के बल दे मारा था। तो संभल के चलिए जनता हिसाब मांगेगी। कोर्ट को अपना काम करने दीजिए।
आखिर में दो लाइने, धमाकों पर धमाके, सैंकड़ों लोगों के चीथड़े, उनके परिजनों की मार्मिक चीत्कारें, बर्बादी के नज़ारे तो आपके दिलों में करुणा नहीं भर सके पर चंद आरोपियों के मानवाधिकारों के लिए आपकी सारी इंसानियत गले से टपकने को बेताब है। कोर्ट को अपना काम करने दीजिए सारा सच सामने आ जाएगा। आखिर आप भी तो न्यायालय का झंडा ही उठा रखे हैं तो फिर इतनी चिल्लाहट क्यों 
अतुल चौरसिया

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बेशरम मुखिया और ग़ैरजिम्मेदार नागरिक

धमाके होने पर भी अगर देश के गृहमंत्री को तीन घंटे में तीन बार कपड़े बदलने की चिंता ज्यादा हो तो ये सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि नाकारा लोगों की फौज के सिर पर जरूर किसी न किसी माई-बाप का वरदहस्त है। दिल्ली के रिसते जख्मों के दो दिन बीतते-बीतते जब ये अटकलें लागई जा रही थी कि शायद अब बहुत हो चुका, इस बार बांसुरीवादव नीरो को उसकी बेपरवाह छवि के लिए बख्शा नहीं जाएगा तभी अचानक उसने ये खुलासा करके उस आशंका को सही साबित कर दिया कि उसके सिर पर महामाता सोनिया का आशिर्वाद पूरी दृढ़ता से विराजमान है।

 

निर्दोष खून से इनकी आत्मा नहीं पिघलती, जितेंद्र स्टाइल में नख-शिख श्रृंगार करने की अदा आम लोगों की सुरक्षा पर भारी पड़ रही है। पर पाटिल नाम्ना बेशर्मी की चादर ओढ़े ये बयान देते हुए नहीं सकुचाता कि उसे सोनिया गांधी का पूरा समर्थन हासिल है यानि उसकी कुर्सी को कोई छू नहीं सकता। तो क्या निकम्मों को बनाए रखने का सारा जिम्मा सोनिया ने उठा रखा है? जनता के दरबार में जिस पाटिल को 2004 के चुनाव में सिरे से नकार दिया गया था उसे अगले ही दिन मंत्रिमंडल में शामिल करके सोनिया ने जता दिया कि जनता कोई देश की मालिक थोड़े ही है। वो तो भेड़ बकरियों की जमात है, उसे जो कहना था कह दिया अब किसे क्या देना है ये फैसला तो देश की महारानी को करना है। सो उन्होंने नख-शिख श्रृंगारप्रेमी को गृहमंत्रालय जैसा महत्पूर्ण पदभार सौंप दिया। तुरंत ही ये संदेश दिमाग में घूमा कि यहां उसी को परम पद मिलेगा जो रीढविहीन, आंख-नाक-कान बंद रखने की कला और 24 घंटे साष्टांग दंडवत योग की माया में निपुण होगा। जिसकी जी-हुजूरी जितनी तेज़ सुनाई पड़ेगी उसे उतना ही उच्चफल प्राप्त होगा। जी-हुजूरी से कन्नी काटे अर्जुन की बुढापे में दुर्दशा भला किसी से छिपी है। बहरहाल ये कुनबे की बात है उनकी सिरफुटौव्वल वो ही जाने। अपना सरोकार सिर्फ ये है कि कब तक लोग खून के आंसू रोएंगे और हम उनकी आध्यात्मिक ओज से भरी बकवास सुनेंगे। पर वो ये न समझें कि सत्ता हमेशा महारानी के पैरों की दासी बनी रहेगी। बेगुनाहों का खून उन्हें भी एक दिन सड़क पर ला खड़ा करेगा। पड़ोस की आग से आंख मूंद कर बैठे लोग यूं ही नहीं सो सकते वो आग कब उनके अपने घरों को दबोच लेगी किसी को इसका अंदाज़ा भी नहीं लगेगा। ज्यादा दूर नहीं हैं उनकी गिरेबान भी।

 

एक दो कौड़ी का इंडियन मुजाहिदीन इतने विशाल विकराल भारतीय गणराज्य के साथ आंख मिचौली का खेल खेल रहा है, खुलेआम चुनौती दे रहा है। लाखों का अमला, करोड़ों-अरबों रूपए का बजट डकारने के बाद भी पूरी तरह से क्लूलेस है। एक के बाद एक धमाके हो रहे हैं और किसी भी एक मामले को उसके अंजाम तक पहुंचाने में सरकारी अमला अक्षम है। 

 

 

धमाकों के बाद आम जनता को जो तकलीफें होती हैं, जो जख्म मिलते हैं, जिनके अपने बिछड़ जाते हैं उनका दर्द तो दूसरा कोई नहीं समझ सकता। पर एक सुर से पुलिस प्रशासन से लेकर सरकार को कोसने का सिलसिला जरूर शुरू हो जाता है। आम आदमी के इस बर्ताव में उसकी बेचारगी, उसकी मजबूरी और उसका दर्द छिपा होता है। और फिर वही आम आदमी आतंकवादियों से मुकाबले के लिए क्या कर रहा है? दिन भर हॉक्स कॉल, बम रखने की अफवाहें फैला रहा है। क्या इसी रुख से आतंकवाद का मुकाबला करेंगे लोग। दिन भर ऊंची बिल्डिंग्स से लेकर रेलवे स्टेशन तक बम रखने की खबरें देकर लोग किस तरह का आनंद उठा रहें हैं ये बात समझ से परे हैं। जब पूरा शहर, पूरा देश एक साथ सौ पचास लोगों की मौत के ग़म से उबरने की कोशिश कर रहा है, नासूर बन चुके आतताइयों से मुकाबले की हिम्मत जुटा रहा हैं, अपनो को खो कर फिर से पैरों पर खड़ा होने का सहारा ढूंढ रहा है तब हमारे बीच के ही कुछ लोगों के लिए ये मौका मौज-मस्ती का साधन बन गया है। बात-बात पर अपने नागरिक अधिकारों की दुहाई देने वालों को नागरिक कर्तव्यों, जिम्मेदारियों का अहसास क्यों नहीं है। दिन भर जिस पुलिस को धमाकों का सिरा खोजने में सिर खपाना चाहिए वो पुलिस कुछ लोगों की हुल्लड़ई के चक्कर में पसीना बहा रही है। इसके बाद भी अतंकवादियों से निपटे की उम्मीद की जा रही है। दूसरों पर बात-बात में उंगलियां उठाने वाले अपने गिरेबान में कब झाकेंगे। या फिर बगदाद, वजीरिस्तान की तरह जीने की आदत डाल लें हम सब। आने वाली पीढ़ियां एक ऐसे माहौल के बीच पनपेंगी जहां आए दिन उनके भाई बहनों का खून होता रहेगा। बचे खुचे लोग लंगड़े लूलों की शक्ल में उन हादसों के निशान लिए घूमेंगे। यही मंशा है तो फिर अफवाहें फैलाना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य होना चाहिए। जिस शहर की एक गली से एक साथ आठ अर्थियां उठी, जिस शहर में एक साथ पचास साठ लोगों का अंतिम संस्कार करना पड़ा क्या उसमें सत्ता, सरकार, व्यवस्था, नेता, प्रशासन से विरोध दर्ज करने के लिए दस पांच हजार लोग भी शामिल नहीं हो सकते थे। डेढ़ करोड़ की आबादी वाले शहर में डेढ़ लाख लोग भी अगर श्मशान घाट पर लोगों की लाश के साथ बैठकर सत्ता प्रतिष्ठान से विरोध दर्ज कराते, गांधी समाधि तक मार्च करते तो शायद साउथ ब्लाक की बहरी अंधी स्नायुओं में खतरे की बू आती, चूलें हिलती नज़र आती। 

 

अतुल चौरसिया

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अमर सिंह की लरज़ती जुबान और बेशर्म राजनीति

रविवार को अरुण जेटली की प्रेस कांफ्रेंस की जानकारी मिलते ही दिमाग में एक साथ कई सवाल कौंध गए। पहली बात तो रविवार को विशेष परिस्थितियों में ही पार्टियां मीडिया को याद करती हैं अन्यथा 24 घंटे कैमरों की पीछा करती नज़र से बचने के लिए ये दिन नेताओं के लिए सबसे मुफीद रहता है। एक बात तो दिमाग में साफ हो गई अरुण जेटली उमा के फर्जी सीडी कांड पर अपना पक्ष रखेंगे और साथ ही संसद में कैश फॉर वोट कांड से जुड़े कुछ खुलासे भी कर सकते हैं। पर जिस तर्ज पर जेटली ने शुरुआत की और एक एक करके जिस तरह से उन्होंने अमर सिंह, संजीव सक्सेना, उनके आपसी संबंध, समाजवादी पार्टी, अहमद पटेल का कच्चा चिट्ठा खोलना शुरू किया उससे अपना ही अनुमान एकाएक गलत साबित होने लगा। जिस तरह के प्रमाणों के साथ अरुण जेटली प्रेस कान्फ्रेस में चौके-छक्के मार रहे थे उसमें उनका पारखी वकालती नज़रिया साथ साफ-साफ झलक रहा था। सुप्रीम कोर्ट का ये वकील अपने दामन पर एक दिन पूर्व अपनी पूर्व सहयोगिनी उमा भारती द्वारा उछाले गए कीचड़ पर एक भी शब्द नहीं बोला। लेकिन जिस तरह के दस्तावेजी सबूत उन्होंने पेश किए ऐसा अगर वो 22 जुलाई को सीएनएन-आईबीएन को समझा देते तो शायद आज राजदीप की जो थुक्का फजीहत हो रही है वो न होती। बहरहाल उमा पर वार न करने की वजह उन्होंने बाद में बताई कि उमा उनके हिसाब से टिप्पणी के लायक ही नहीं हैं वो तो खुद अमर सिंह के हाथों मोहरा बन गईं हैं।

गौरतलब है कि इस सीडी के जारी होने के बमुश्किल दो या तीन दिन पहले उमा, अमर सिंह से मिलने उनके घर भी गई थी। और पत्रकारों के पूछने पर उन्होंने जवाब दिया था कि महिला आरक्षण के संबंध में चर्चा करने के लिए आई थी। दो दिन बाद उमा द्वारा जारी सीडी का मजमून समझने के लिए इतना ही इशारा काफी है।   

इतनी उठा पटक के बीच अमर सिंह का पक्ष जानना भी जरूरी था। पर उन्होंने अपने दरवाजे पर आए पत्रकारों को ये कह कर टाल दिया कि मैं कल जवाब दूंगा। यानी अमर सिंह को कही न कहीं अहसास हो गया था कि एक और उल्टा-सीधा बयान उनके लिए मुसीबत बन सकता है। पर राजनीति की कढाई इतनी जल्दी आग से नहीं उतरती। अगले दिन अमर सिंह अपने सरगना मुलायम सिंह के साथ दो और सिपहसालारों का जुगाड़ करके एक नई सीडी लेकर हाजिर हो गए। ये नए सिपहसालार थे लालू यादव और रामविलास पासवान जिन्होंने इसी सरकार में मंत्री रहते हुए एक समय आपसी लड़ाई को एक दूसरे के आंगन और बेडरूम तक पहुंचा दिया था। बहरहाल थोड़ी सी भी समझ रखने वाले व्यक्ति को इस सारी चकल्लस की सच्चाई का अंदाज़ा हो जाएगा। सीडी पर सीडी और स्टिंग पर स्टिंग और सबमें संजीव सक्सेना मुख्य अभिनेता, फिर भी संजीव सक्सेना गायब है। यानी उसका अमर सिंह से कितना गहरा रिश्ता है इसे समझना मुश्किल नहीं है।

बहरहाल अपना मकसद दूसरा है। सीडी पर सीडी जारी करने इस खेल में कहीं ये पार्टियां अपनी शातिर चालों से इतने संगीन मामले को हल्का करने की कोशिश तो नहीं कर रहीं हैं। जिस तरह के तथ्य अरुण जेटली ने पेश किए थे उसका कोई जवाब दिए बेगैर सीडी का एक नया शो दिखाकर सारे मीडिया को चाय-नाश्ता कराने का मंसूबा क्या हो सकता है? आखिर अमर सिंह अपने साथ लालू जैसे नेताओं को लाकर क्या दिखाना चाहते थे कि हमारे पास सत्ता, ताकत और सहयोग सब है इसलिए हमसे ना टकराना। ये बात जानते हुए भी कि संपादित सीडी या विजुअल किसी तरह का सबूत नहीं बन सकते ये नौटंकी करने का क्या मकसद हो सकता है? जिस खिलंदड़ अंदाज़ में लालू यादव तीनों सांसदों का नार्को टेस्ट करवाने की बात कर रहे थे वही लालू संजीव सक्सेना का नार्को टेस्ट करवाने की बात क्यों नहीं करते, आखिर वो देश के प्रतिष्ठित राजनेता और जो कलंक संसद के माथे पर लगा है उसे साफ करने की जिम्मेदारी उनकी भी बनती है। और इस सबसे ऊपर अगर आपके पास संजीव सक्सेना का स्टिंग करने के लिए उसका निवास-पता मालूम है तो फिर इतने बड़े शर्म को सामने लाने के लिए उसे सामने लाने की बात क्यों नहीं की लालूजी ने। पर शायद सबने मिलकर इसे हल्के में उड़ाने का मंसूबा बना लिया है।

पत्रकारों ने जब जेटली के प्रमाणों के आधार पर अमर सिंह से जवाब मांगे तो उनकी लरजती जुबान-अटकती हिंदी ये चुगली कर रही थी कि कर्कश वाणी के फर्राटेदार महारथी बोलने से पहले मुसीबतों के सागर में गोते लगा रहे थे। तीन बार में उन्होंने संजीव सक्सेना अपने यहां से निकालने की तीन तारिखें बताई। पहले उन्होंन कहा कि उसे 19 जुलाई को काम से हटा दिया गया। फिर कहा कि 20 की शाम को वो आफिस आया था। फिर बताया कि 21 को उसने मिलने की कोशिश की थी। और उसे निकले जाने की वजह बता पाने में एक बार फिर उनकी जुबान दगा दे गई। अंतत: जब कुछ समझ नहीं आया तो अपने ऑफिस के एक कर्मचारी के ऊपर सारी जवाबदेही डालकर वहां निकलने में अपनी भलाई समझी। गौरतलब है कि इसी तीन दिन के बीच संजीव सक्सेना ने अमर सिंह के उस बहुप्रचारित प्रेस कान्फ्रेंस के एसएमएस तमाम पत्रकारों को भेजे थे जिसमें उन्होंने बड़े गर्व से एक सांसद का दलबदल करवाया था।

अच्छा तो ये होता कि जितना बढ़ चढ़कर अरुण जेटली दावा कर रहे थे उसके बाद सीएनएन-आईबीएन टेप को प्रसारित करता। आखिर उसी का हवाला तो वो दे रहे हैं। तो ये भी साफ हो जाता कि अरुण और भाजपा कितने दूध के धुले हैं। दूसरी ओर हर दिन एक नया स्टिंग दिखाकर सत्ताधारी कुनबे ने तो अपनी विश्वसनीयता खो ही दी है। तो उम्मीद मीडिया से ही की जा सकती है। पर ऐसा भी नहीं हो रहा है। उधर नेता एक दूसरे की लंगोट खींचने में मशगूल हैं।

अतुल चौरसिया

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सीरियल धमाकों का सिलसिलेवार सीरियल

सिलसिलेवार धमाके, सीरियल ब्लास्ट ये शब्द आम हिंदुस्तानियों के लिए उतने ही आम हो चले हैं जितना मोगादिशू, दारफुर की गलियों में बारह साल के बच्चे के हाथ में एके 47, क्लाशिनिकोव। मन में धमाका करने का निश्चय करके निकले आतंकवादी को पकड़ना खुफिया विभाग, पुलिस तो क्या ब्रह्मा के वश की भी बात नहीं है। जिस तरह के जटिलताओं से भरे इस देश की सामाजिक संरचना हैं उसमें शत-प्रतिशत सुरक्षा की गारंटी मुश्किल है। उस पर से तुष्टिप्रधान राजनीति। मुंबई की लोकल रेल में धमाके होंगे तो मनमोहन सिंह देश के नाम संदेश देने की घड़ी में पीएमओ से ये संदेश देना ज्यादा पसंद करते हैं कि सुरक्षा एजेंसियां फला वर्ग को निशाना न बनाएं। देश का गृहमंत्री कोई बयान देने से पहले 10 जनपथ की ओर से हरी झंडी मांगता है।

तो फिर इस सिलसिले का अंत क्या है? क्या सारा तंत्र सिर्फ इस बात की नुमाइंदगी में लगा हुआ है कि ये विस्फोट हमारी नियति बन चुके हैं। हमें इसी के बीच जीने की आदत डालनी होगी। जो बदकिस्मत रहे वो धमाकों में मारे गए जो खुशकिस्मत हैं वो थोड़ी देर और ज़िंदा रहने का लुत्फ उठा लें।

संयम की अपील, मरने वालों को लाख दो लाख का झुनझुना, पाकिस्तानी हाथ, विदेशी षडयंत्र, वैमनस्य फैलाने का मकसद जैसे रटे-रटाए जुमलों से निकट संबंधियों को खोने वालों के दिलों की आग को ठंडा रखने की नाकाम कोशिश कब तक होती रहेगी?

बड़े की छींक से भी सिंहासन हिलते हैं। 11 सितंबर वो तारीख है जो दुनिया के नक्शे पर आतंकवाद को ग्लोबलाइज़ करने के लिए जानी जाती है। इससे पहले पश्चिमी दुनिया की सोच थी कि ये बीमारी भारतीय उपमहाद्वीप, मध्यपूर्व और नंग दरिद्र अफ्रीका की है। पश्चिमी समाज खुद को इस दावानल की पहुंच से बहुत दूर समझता था। लेकिन 11 सिंतबर को दुनिया का चौधरी भी इस दावानल की दहक से झुलस गया।

प्रगतिशील समाजों की ख़ासियत है वो अपने अतीत के हर अच्छे-बुरे अनुभवों को सहेज कर रखता है। ऑसवित्ज़ में हुए हिटलरशाही अत्याचारो की निशानियों को जर्मनी ने आज भी जस का तस सहेज कर रखा है। दुनिया भरे के लोग इसे देखने आते हैं, इसकी क्रूरता का अहसास करते हैं, और फिर उसके परिणामों के भय से ऐसे कारनामों से दूर रहने की शपथ लेते हैं।

9/11 को आतंक की हत्यारी बांहें अमेरिका ने अपने गिरेबान पर महसूस की और आगे के लिए सीख भी ली। आज तक अमेरिका में दूसरा आतंकी हमला तो क्या कोई आतंकवादी दिवाली के पटाखे तक नहीं छोड़ सका है। अमेरिकियों ने WTC शहीद स्थल पर ग्राउंड ज़ीरो के नाम से स्मारक बनाया। हर साल 9/11 की बरसी के मौके पर लाखो अमेरिकी मारे गए लोगों की याद में मौन रखते हैं, उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। ये न भूलने की वो ताकत है जो फिर से किसी हमले की आशंका को खत्म करती है। ब्रिटेन की ट्यूब ट्रेनों में हुए धमाकों के बाद आज तक ब्रिटेन में कोई हमला नहीं हो सका है तो इसकी वजह न भूलने की और गलतियों से सीख लेने की ताकत ही है। इंसान और जानवर के बीच फर्क ही यहीं पैदा होता है कि इंसान अपनी गलतियों को परिमार्जित करता है और भविष्य में किसी और ग़लती से बचता है। जानवर ऐसा नहीं कर पाते।

तो फिर भारतीय व्यवस्था क्या जानवरों से भी बदतर हो चली है। हैदराबाद, मालेगांव, वाराणसी, बाराबंकी, लखनऊ, दिल्ली, मुंबई, फैजाबाद, बंगलोर, जयपुर, अहमदाबाद। हर बार वही ग़लती, हर बार वही चूक। अपराधी को अपराध करने के लिए क्या चाहिएउसके पहले अपराध के बाद कोई दंड न मिलना। हौसले बढ़ने के बाद पॉकेटमार उचक्का भी दिन दहाड़े लूट हत्याओं को अंजाम देने लगता है। मुंबई लोकल ट्रेन में आज तक किसी की गिरफ्तारी हुई, हैदराबाद मामले में किसी की गिरफ्तारी हुई, जयपुर मामले में कोई निष्कर्ष निकला। आखिर क्यों? अरबों रूपए डकार रहा खुफिया विभाग, सुरक्षा एजेंसियां, पुलिस घटना के पहले पता लगाने में नाकाम क्यों हैं, घटना होने के बाद अंधेरे में तीर क्यों मार रही हैं? एक भी मामले को अंतिम परिणति तक क्यों नहीं पहुंचाया जा सका?

तो फिर आतंकवादियों को और क्या चाहिए। जूते खाओ और बेशर्मो की तरह भूल जाओ। खुद ज़ेड प्लस की सुरक्षा में चैन की नींद और आम आदमी के सिर पर मौत का साया। एक नहीं दो नहीं दस औऱ गिनती चालू है। रोम जल रहा है और सारे नीरो बांसुरी बजाने में व्यस्त हैं।

इतने हादसों के बाद सिर्फ एक ही कला हमने सीखी हैभूलने की। पाकिस्तान के धोखे पर विश्वास किया कारगिल का ईनाम मिला। हम फिर भूल गए। हर दिन धमाके और अगले दिन की सुर्खियां, मुंबई की ज़िंदादिली को सलाम। यानी भूल जाओ। ख़बरिया टीवी वाले दिल्ली का जज्बाके नाम पर गला फाड़ देते हैं यानी सब भूल जाओ। और जाने अनजाने ये उन नीरो का काम ही आसान कर रहे हैं जिनकी जवाबदेही इन घटनाओं के बाद बनती थी। वो चाहते ही यही हैं कि लोग भूल जाएं। वरना 12 मार्च 1993 के बाद मुंबई दोबारा निशाना नहीं बनती।

मुंबई में 1993 के 400 मृतकों के लिए कोई दो मिनट का मौन रखता है? हमने उनकी याद में कोई स्मारक बनाया। कोई ग्राउंड ज़ीरो मुंबई में क्यों नहीं है? हम भूल गए। हम याद ही नहीं रखना चाहते। भूल कर खुश रहते हैं औऱ अगली बार के आसान शिकार बनते हैं। नीरो भी यही चाहता है।

पूरे सरकारी तंत्र का फोकस जनहित के मुद्दों से हट कर कही और केंद्रित हो गया है। प्रधानमंत्री का सारा अमला अपनी सरकार बचाने के जोड़ तोड़ में व्यस्त है, सांसदों की खरीद फरोख्त से लेकर, अंबानी के घरेलू झगड़े निपटाने का ध्यान तो सरकार को हैं पर आमहित के मुद्दों पर सोचने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। सरकार हवाई अड्डे का नाम बदलने को प्राथमिकता देती है, सोरेन जैसे दागियों को मंत्री बनाने को प्राथमिकता देती है पर जनता के दर्द के मुद्दे के लिए किसी के पास वक्त ही नहीं है।

एक अराजनीतिक व्यक्ति अपने निर्दोष चेहरे का कितना फायदा उठा रहा है ये भी अब किसी से छिपा नहीं रहा। नरसिंह राव की सरकार पर ये बयान देकर कि, सीज़र की पत्नी सभी संदेहों से परे होनी चाहिए राजनीति के हमाम में पाक शफ्फाक चोला पहनने वाले मनमोहन सिंह अपनी बारी आते ही हमाम के बाकी नंगों में शामिल हो गए। तो फिर आंतकवाद जैसे बेमतलब के मुद्दे के लिए फुर्सत ही कहां बचती है।

अतुल चौरसिया  

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भीड़तंत्र की बल्ले-बल्ले

इस देश का अपना अलग शास्त्र है। इसमें विचित्रता है, एकरसता है, बहुत कुछ है। यहां गणेशजी दूध पीते हैं तो पूरे देश में एक साथ पीना शुरू कर देते हैं। साईं बाबा की माला बढ़ती है देश में चहुओंर बढ़ने लगती है। अंधविश्वासों से इतर वास्तविक घटनाओं का भी एक अलग शास्त्र है। एक सिख युवक का केश किसी ने काट लिया तो अगले हफ्ते तक इस तरह की दो-चार घटनाएं जरूर हो जाती हैं। जैसे उचक्के इसी के इंतज़ार में उस्तरे थामे बैठे थे। या फिर देश के अलग अलग हिस्सों में जैसे उनके बीच कोई तार-बेतार संपर्क हो।

 

कुछ घटनाएं घटना चक्र के रूप में चलती हैं। अब देखिए साल भर पहले गुर्जर विवाद हुआ उसे थामते थामते डेरा–सिख समर्थक भिड़ गए। साल भर बाद बिल्कुल अलग ज़मीन पर एक बार फिर इन दोनों विरोधियों ने देश के सामने जैसे पुरानी घटनाओं का रिप्ले पेश कर दिया हो। गुर्जरों ने पुरानी ज़मीन राजस्थान पर बवाल शुरू किया तो इसके शांत होते होते मुंबई में सिख-डेरा समर्थक फिर से आमने सामने हो गए। ये आग मुंबई से चलकर सुदूर पंजाब तक पहुंच गई। यानी एक के बाद दूसरी घटनाओं का ऐसा तारतम्य होता है कि कड़ी टूटने नहीं पाती। सड़क पर उतर कर अपनी अहमियत जताने का जैसा चलन इस देश में विगत कुछ सालों से चल पड़ा है उसे समझना मुश्किल है।

 

महीनों चला डेरा सिख विवाद, उससे पहले पैदा हुआ गुर्जरों का हिंसक आंदोलन, इसके जवाब में शुरू हुआ मीणा संघर्ष, मुंबई में राज ठाकरे का उत्तर भारतीय विरोधी हिंसात्मक अभियान, मुंबई में ख़बरिया चैनल के दफ्तर पर भगवा ब्रिगेड का हमला, जबलपुर में कॉलेज परिसर में प्रोफेसर की मौत, पत्रकार कुमार केतकर के घर पर एनसीपी का हमला, असम में हिंदी भाषियों की चुनचुनकर हत्या, कश्मीर में अमरनाथ यात्रा को लेकर हिंसक विरोध, इसके जवाब में पूरे देश में भगवा ब्रिगेड का हिंसक बंद, दार्जिलिंग में गोरखालैंड का लट्ठमार अभियान, बिहार में भीड़ का न्यायतंत्र और इन सबसे बची खुची कसर पूरी करते हैं देश के 25 फीसदी हिस्से में शासन चला रहे नक्सलीये सभी घटनाएं बीते एक साल के दौरान हुई है।

 

इन घटनाओं ने लगातार देश की राजनीति से लेकर समाजनीति को गरमाए रखा है। किसी स्थिर, मजबूत लोकतंत्र की ये स्वस्थ निशानी कही जा सकती है? शायद ही किसी को विश्वास हो। लोकतंत्र की परिभाषा देने वाले पश्चिम के समाज में इस तरह की भदेस चाल दिखनी दुर्लभ है। मेरा भारत महान का दम भरने वाले इतने भी सहिष्णु नहीं हैं कि देश के न्यायतंत्र का रुख कर सकें। हर आदमी के भीतर खुद ही फैसला करने की अजब धुन इस देश में सवार है।

 

दुनियावालों इस ओर मत देखो, विश्वशक्ति के ख्वाब देख रहा दुनिया का विशालतम लोकतंत्र फिलहाल भीड़तंत्र की चपेट में हैं।

 

अतुल चौरसिया

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कुछ अन्यमनस्क हो रहा हूं…

बहुत छोटे थे हम जब शाहबानों मामले में कांग्रेस ने अपना धर्म निरपेक्ष चोला उतार फेंका था। उस ग़लती के एहसास ने राजीव गांधी को अयोध्या का रास्ता दिखा दिया। जिस भाड़ को आडवाणी आज तक झोक रहे हैं उसकी चिंगारी इन्हीं राजीवजी ने सुलगाई थी। फिर एक मौका आया जब सत्तावर्ग खुद को देश की सबसे मजबूत और सर्वसमाज की पार्टी के रूप में स्थापित कर सकती थी लेकिन मुफ्ती जी की बिटिया पूरे हिंदुस्तानी राजवर्ग पर भारी पड़ गई। और यहां से सिंचित हुई कश्मीर घाटी में अलगाववाद की बयार आज काफी हद तक वटवृक्ष तक का सफर तय कर चुकी है। काफी हद तक आतंकियों को 1999 की गोघूलि की बेला और नई सहस्त्राब्दि की शुरुआत में गांधार योजना की प्रेरणास्रोत मुफ्ती साहब की बिटिया ही थी जिनके बारे में बाद में सुना गया कि उन्हीं आतंकियों में से किसी के साथ घर बसा लिया।

 

अब उन्हीं की एक बिटिया पीडीपी के नाम से कश्मीर की सियासत संभाल रही हैं। पर भाषा उनकी पूरी की पूरी हुर्रियत वालों से होड़ लेती है। सियासत की अपनी मजबूरी है। पर अपनी निजी फायदे के आगे जिस बड़े हित को इन नेताओं ने दांव पर लगाया है उसकी कीमत बहुत महंगी अदा करनी होगी। हिंदुस्तान सिर्फ कश्मीर नहीं है और गंगा जमुनी तहजीब सिर्फ घाटी में नहीं बसती। पर आगे जब पुलिस अपने फर्जी मुठभेड़ों में किसी कश्मीरी को निशाना बनाएगी तो हमेशा से इसके विरोध में उठने वाली पुरज़ोर आवाज़ अमरनाथ यात्रा की तपिश के चलते कमज़ोर पड़ जाएगी। तब शायद उन क्रूर हत्याओं को भी देश का लंबा-चौड़ा तबका अपनी मौन स्वीकृति दे देगा। जिस तरह की भाषा पिछले दिनों कश्मीर में देखने को मिली वो काफी विदारक है। देश के लिए ये भावनाएं कहीं से स्वास्थ्यकर नहीं है। मानसिकता के रास्ते दिलों तक उतरती स्थितियां दिनों दिन मजबूत होंगी। पीडीपी के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि हमने समझौता किया है अपना ईमान गिरवी नहीं रखा है। नेशनल कांफ्रेंस वाले श्राइन बोर्ड को दी गई ज़मीन के मसले पर हुर्रियत से भी कड़ी भाषा में गरिया रहे हैं। और इन सबके बीच एक बार फिर कांग्रेस शाह बानों  के बाद उसी तरह की ऐतिहासिक ग़लती कर गया है।

इस देश में हर राज्य, हर ज़िले में हज कमेटी के लिए ज़मीने दी गई है, उन पर अब जब कोई हिंदूवादी आंखे तरेरेगा तो उसका खुलकर सामना किस मुंह से लोग करेंगे। इस देश ने मुसलमानों को अपना पर्सनल लॉ बोर्ड चलाने की अनुमति दे रखी है। किसी पश्चिमी लोकतंत्र में ऐसी इजाजत किसी को नहीं है। सबके लिए सिर्फ और सिर्फ एक क़ानून होता है। ये हिंदुस्तान है जहां सबको अपने अपने हिसाब से रहने की छूट है इसमें पर्सनल लॉ तक वाजिब है। इस पर रोक की बात होते ही एक आवाज़ उठती है हमारे धार्मिक मामलो में सियासी हस्तक्षेप हो रहा है। अब कश्मीर में क्या हुआ? जब हिंदू कट्टरपंथी कहेंगे कि कश्मीर में हमारे धार्मिक मामलों को श्राइन बोर्ड से छीन कर राजनीति के हवाले क्यों किया गया तो किस मुंह से देश का धर्म निरपेक्ष तबका उनका सामना कर पाएगा?

 

कुतर्क की सीमाएं असीमित हैं। अगर 40 हेक्टेयर ज़मीन से कश्मीर में मुसलमान अल्पसंख्यक हो जाते हैं (जैसा गिलानी ने अपनी रैली में कहा), राज्य का मुस्लिम बहुल चेहरा बिगाड़ने की साजिश है (जैसा मुफ्ती के सिपहसालारों ने और उनकी बेटी ने कहा) तो फिर देश में इतने सारे हज मंज़िलों, मस्जिदों, मदरसों से हिंदू कट्टरपंथियों को भी अल्पसंख्यक होने का ख़तरा पैदा हो सकता है, देश का हिंदू बहुल स्वरूप बिगड़ने का ख़तरा पैदा हो सकता है। फिर किस मुंह से लोग मुस्लिमों का बचाव करेंगे।

 

समस्या की जड़ दरअसल कश्मीर में ही है। यहां का सियासी तबका घाटी की सीमाओं को ही सारे वोटर का गढ़ मानने की भूल में है। उसकी दूरगामी सोच कही से देश की दीर्घकालिक हितों से जुड़ती नहीं दिख रही है। और न ही उसे इसके आसन्न खतरे नज़र आ रहे हैं जो आने वाले समय में देश में जटिल धार्मिक स्थितियां पैदा करने की ताकत रखता हैं। जम्मू, दिल्ली में विहिप, बजरंग दल, शिवसेना की विरोध रैलियों से इसका आभास भी होने लगा है। कांग्रेस तो खैर ऐतिहासिक गलतियों का मकड़जाल बुनने में व्यस्त है और देश की दूसरी बड़ी पार्टी भाजपा इस मकड़जाल की उलझन से पैदा हुए शून्य में अपना सियासी भविष्य देख रही है। तो फिर ये देश किससे उम्मीद करे।

अलगाववाद के जो कश्मीरी तर्क हैं उनके आधार पर तो इस देश के पचास टुकड़े कर दिए जाएं तो भी अलगाववाद की लड़ाई कभी नहीं रुकेगी। पर ये एक अलग मसला है इस पर भी लंबी चर्चा की जा सकती है। फिलहाल राजनीतिक इच्छाशक्ति इस देश और कश्मीर के सत्ता प्रतिष्ठान के लिए सबसे अहम सवाल है। पर इसका अभाव कश्मीर से लेकर महाराष्ट्र तक साफ दिख रहा है।

 

अतुल चौरसिया     

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