सिलसिलेवार धमाके, सीरियल ब्लास्ट ये शब्द आम हिंदुस्तानियों के लिए उतने ही आम हो चले हैं जितना मोगादिशू, दारफुर की गलियों में बारह साल के बच्चे के हाथ में एके 47, क्लाशिनिकोव। मन में धमाका करने का निश्चय करके निकले आतंकवादी को पकड़ना खुफिया विभाग, पुलिस तो क्या ब्रह्मा के वश की भी बात नहीं है। जिस तरह के जटिलताओं से भरे इस देश की सामाजिक संरचना हैं उसमें शत-प्रतिशत सुरक्षा की गारंटी मुश्किल है। उस पर से तुष्टिप्रधान राजनीति। मुंबई की लोकल रेल में धमाके होंगे तो मनमोहन सिंह देश के नाम संदेश देने की घड़ी में पीएमओ से ये संदेश देना ज्यादा पसंद करते हैं कि सुरक्षा एजेंसियां फला वर्ग को निशाना न बनाएं। देश का गृहमंत्री कोई बयान देने से पहले 10 जनपथ की ओर से हरी झंडी मांगता है।
तो फिर इस सिलसिले का अंत क्या है? क्या सारा तंत्र सिर्फ इस बात की नुमाइंदगी में लगा हुआ है कि ये विस्फोट हमारी नियति बन चुके हैं। हमें इसी के बीच जीने की आदत डालनी होगी। जो बदकिस्मत रहे वो धमाकों में मारे गए जो खुशकिस्मत हैं वो थोड़ी देर और ज़िंदा रहने का लुत्फ उठा लें।
संयम की अपील, मरने वालों को लाख दो लाख का झुनझुना, पाकिस्तानी हाथ, विदेशी षडयंत्र, वैमनस्य फैलाने का मकसद जैसे रटे-रटाए जुमलों से निकट संबंधियों को खोने वालों के दिलों की आग को ठंडा रखने की नाकाम कोशिश कब तक होती रहेगी?
बड़े की छींक से भी सिंहासन हिलते हैं। 11 सितंबर वो तारीख है जो दुनिया के नक्शे पर आतंकवाद को ग्लोबलाइज़ करने के लिए जानी जाती है। इससे पहले पश्चिमी दुनिया की सोच थी कि ये बीमारी भारतीय उपमहाद्वीप, मध्यपूर्व और नंग दरिद्र अफ्रीका की है। पश्चिमी समाज खुद को इस दावानल की पहुंच से बहुत दूर समझता था। लेकिन 11 सिंतबर को दुनिया का चौधरी भी इस दावानल की दहक से झुलस गया।
प्रगतिशील समाजों की ख़ासियत है वो अपने अतीत के हर अच्छे-बुरे अनुभवों को सहेज कर रखता है। ऑसवित्ज़ में हुए हिटलरशाही अत्याचारो की निशानियों को जर्मनी ने आज भी जस का तस सहेज कर रखा है। दुनिया भरे के लोग इसे देखने आते हैं, इसकी क्रूरता का अहसास करते हैं, और फिर उसके परिणामों के भय से ऐसे कारनामों से दूर रहने की शपथ लेते हैं।
9/11 को आतंक की हत्यारी बांहें अमेरिका ने अपने गिरेबान पर महसूस की और आगे के लिए सीख भी ली। आज तक अमेरिका में दूसरा आतंकी हमला तो क्या कोई आतंकवादी दिवाली के पटाखे तक नहीं छोड़ सका है। अमेरिकियों ने WTC शहीद स्थल पर ग्राउंड ज़ीरो के नाम से स्मारक बनाया। हर साल 9/11 की बरसी के मौके पर लाखो अमेरिकी मारे गए लोगों की याद में मौन रखते हैं, उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं। ये न भूलने की वो ताकत है जो फिर से किसी हमले की आशंका को खत्म करती है। ब्रिटेन की ट्यूब ट्रेनों में हुए धमाकों के बाद आज तक ब्रिटेन में कोई हमला नहीं हो सका है तो इसकी वजह न भूलने की और गलतियों से सीख लेने की ताकत ही है। इंसान और जानवर के बीच फर्क ही यहीं पैदा होता है कि इंसान अपनी गलतियों को परिमार्जित करता है और भविष्य में किसी और ग़लती से बचता है। जानवर ऐसा नहीं कर पाते।
तो फिर भारतीय व्यवस्था क्या जानवरों से भी बदतर हो चली है। हैदराबाद, मालेगांव, वाराणसी, बाराबंकी, लखनऊ, दिल्ली, मुंबई, फैजाबाद, बंगलोर, जयपुर, अहमदाबाद। हर बार वही ग़लती, हर बार वही चूक। अपराधी को अपराध करने के लिए क्या चाहिए—उसके पहले अपराध के बाद कोई दंड न मिलना। हौसले बढ़ने के बाद पॉकेटमार उचक्का भी दिन दहाड़े लूट हत्याओं को अंजाम देने लगता है। मुंबई लोकल ट्रेन में आज तक किसी की गिरफ्तारी हुई, हैदराबाद मामले में किसी की गिरफ्तारी हुई, जयपुर मामले में कोई निष्कर्ष निकला। आखिर क्यों? अरबों रूपए डकार रहा खुफिया विभाग, सुरक्षा एजेंसियां, पुलिस घटना के पहले पता लगाने में नाकाम क्यों हैं, घटना होने के बाद अंधेरे में तीर क्यों मार रही हैं? एक भी मामले को अंतिम परिणति तक क्यों नहीं पहुंचाया जा सका?
तो फिर आतंकवादियों को और क्या चाहिए। जूते खाओ और बेशर्मो की तरह भूल जाओ। खुद ज़ेड प्लस की सुरक्षा में चैन की नींद और आम आदमी के सिर पर मौत का साया। एक नहीं दो नहीं दस औऱ गिनती चालू है। रोम जल रहा है और सारे नीरो बांसुरी बजाने में व्यस्त हैं।
इतने हादसों के बाद सिर्फ एक ही कला हमने सीखी है—भूलने की। पाकिस्तान के धोखे पर विश्वास किया कारगिल का ईनाम मिला। हम फिर भूल गए। हर दिन धमाके और अगले दिन की सुर्खियां, “मुंबई की ज़िंदादिली को सलाम”। यानी भूल जाओ। ख़बरिया टीवी वाले “दिल्ली का जज्बा” के नाम पर गला फाड़ देते हैं यानी सब भूल जाओ। और जाने अनजाने ये उन नीरो का काम ही आसान कर रहे हैं जिनकी जवाबदेही इन घटनाओं के बाद बनती थी। वो चाहते ही यही हैं कि लोग भूल जाएं। वरना 12 मार्च 1993 के बाद मुंबई दोबारा निशाना नहीं बनती।
मुंबई में 1993 के 400 मृतकों के लिए कोई दो मिनट का मौन रखता है? हमने उनकी याद में कोई स्मारक बनाया। कोई ग्राउंड ज़ीरो मुंबई में क्यों नहीं है? हम भूल गए। हम याद ही नहीं रखना चाहते। भूल कर खुश रहते हैं औऱ अगली बार के आसान शिकार बनते हैं। नीरो भी यही चाहता है।
पूरे सरकारी तंत्र का फोकस जनहित के मुद्दों से हट कर कही और केंद्रित हो गया है। प्रधानमंत्री का सारा अमला अपनी सरकार बचाने के जोड़ तोड़ में व्यस्त है, सांसदों की खरीद फरोख्त से लेकर, अंबानी के घरेलू झगड़े निपटाने का ध्यान तो सरकार को हैं पर आमहित के मुद्दों पर सोचने की फुर्सत किसी के पास नहीं है। सरकार हवाई अड्डे का नाम बदलने को प्राथमिकता देती है, सोरेन जैसे दागियों को मंत्री बनाने को प्राथमिकता देती है पर जनता के दर्द के मुद्दे के लिए किसी के पास वक्त ही नहीं है।
एक अराजनीतिक व्यक्ति अपने निर्दोष चेहरे का कितना फायदा उठा रहा है ये भी अब किसी से छिपा नहीं रहा। नरसिंह राव की सरकार पर ये बयान देकर कि, “सीज़र की पत्नी सभी संदेहों से परे होनी चाहिए” राजनीति के हमाम में पाक शफ्फाक चोला पहनने वाले मनमोहन सिंह अपनी बारी आते ही हमाम के बाकी नंगों में शामिल हो गए। तो फिर आंतकवाद जैसे बेमतलब के मुद्दे के लिए फुर्सत ही कहां बचती है।
अतुल चौरसिया